रोज की तरह आज भी सूरज अस्त हो गया और आँखमिचोली करता उसी पहाड़ी के पीछे छुप गया, वो परछाईं भी तो धुँधली सी पड़ गयी है या शायद मेरी नजर, एक वक्त के बाद पर वो आवाज़ अब भी गूँजती है वहाँ मेरे कानों में.... और तुम मुझसे कहा करती थीं ना कि " मुझे इस तलहटी से बहुत प्यार है एक दुनिया है मेरी जिसमें जी भर जीना चाहती हूँ पर जीने नहीं दिया जाता । पल पल सहमी हुयी डरी सी सोचती हुई सवाल करती हूँ.. ये हिसाब शब्द किसने बनाया, क्या जानते हो तुम ? मुझे तो सांसों तक का हिसाब देना पड़ता है । मेरी भी अपनी दुनिया है भले ही आभासी क्यों ना हो, जिसमें मैं जीना चाहती हूँ .. खुश रहना चाहती हूँ । विक्षिप्त सी मैं रोज आँखें खोलती हूँ जीने की उम्मीद में नहीं अपितु कुछ अलग, कुछ नया करने की चाह में.. जो मुझे खींच लाती है यहाँ इस पहाड़ी की तलहटी में... । जहाँ आकर कुछ सुकुन सा पाती हूँ वो दूर गिरता झरना कुछ अलग प्रमाद भर देता है मेरे भीतर, तो लगने लगता है मेरी दुनिया, मेरे सपने मेरे हैं बस मेरे और अगले ही पल सब बिखर जाता है... कैसे मेरे सपने मेरे हो जायेंगे.. मैं लड़की हूँ.... गुला