अतीत
उसने पूछा- "कभी ऐसा हुआ ? तुम चुप रही हो और फिर भी आ रही हो आवाज विस्मृत हो रहे हों तुम्हारे कान तुम्हारी आँखें खुद तुम भी कि दिन ,दिन है और रात ,रात है ही" मैंने कहा- "अजीब है न कौंधती बिजली भी नहीं डराती जब किसी की खामोशी डरा जाती है उन खामोशी की आवाजें मेरे भीतर का रक्त उबाल रही हैं " उसने मुस्कुराते हुए किसी की खामोशी नहीं वहम डराते हैं मैं चुप हूँ रो रही कि हाँ वहम या हकीकत पुरानी उसकी टीस डराती है दिन रात नहीं देखती ये सच है वो मेरे भीतर डर की आवाजें चीख रहीं हैं सुनो अरे सुनो तुमने सुना न ! - दीप्ति शर्मा