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Showing posts from August, 2013

कीमत

बंद ताले की दो चाबियाँ और वो जंग लगा ताला आज भी बरसों की भाँति उसी गेट पर लटका है चाबियाँ टूट रहीं हैं तो कभी मुड़ जा रहीं हैं उसे खोलने के दौरान । अब वो उन ठेक लगे हाथों की मेहनत भी नहीं समझता जिन्होंने उसे एक रूप दिया उन ठेक लगे हाथों की मेहनत की कीमत से दूर वो आज महत्वाकांक्षी बन गया है अपने अहं से दूसरों को दबाकर स्वाभिमान की कीमत गवां रहा है © दीप्ति शर्मा
पुरानी यादों के स्मृतिपात्र भरे रहते हैं भावनाओं से जिन पर कुछ मृत चित्र जीवित प्रतीत होते हैं और दीवार पर टँगी समवेदनाओं को उद्वेलित करते हैं । और एक काल्पनिक कैनवास पर चित्र बनाते हैं । © दीप्ति शर्मा

तुम और मैं .

मैं बंदूक थामे सरहद पर खड़ा हूँ और तुम वहाँ दरवाजे की चौखट पर अनन्त को घूँघट से झाँकती । वर्जित है उस कुएँ के पार तुम्हारा जाना और मेरा सरहद के पार उस चबूतरे के नीचे तुम नहीं उतर सकतीं तुम्हें परंपराऐं रोके हुये है और मुझे देशभक्ति का ज़ज़्बा जो सरहद पार करते ही खतम हो जाता है मैं देशद्रोही बन जाता हूँ और तुम मर्यादा हीन बाबू जी कहते हैं.. मर्यादा में रहो,  अपनी हद में रहो शायद ये घूँघट तुम्हारी मर्यादा है और मेरी देशभक्ति की हद बस इस सरहद तक.. । © दीप्ति शर्मा

सिर्फ एक झूठ

आज डायरी के पन्नें पलटते हुये एक पुरानी कविता मिली.... लिजिये ये रही.. अगाध रिश्ता है सच झूठ का सच का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है सिर्फ़ एक झूठ से । अपरम्पार महिमा है झूठ की चेहरे से चेहरा छुप जाता है इंसानों का ज़ज़्बा खो जाता है सिर्फ एक झूठ से । अगण्य होते हैं पहलू हर एक झूठ के रिश्ते भी तोले जाते हैं सिर्फ एक झूठ से । अक्त हुयी कोई बात उभर के ना आ पाये यही उम्मीदें होती हैं सिर्फ एक झूठ से । कहानी खूब सूनी होंगी सूनी कभी झूठ की कहानी कभी सच भी हार जाता है सिर्फ एक झूठ से । अनगिनत सवाल होते हैं पर समाधान कोई नहीं सवाल ठुकरा दिया जाता है सिर्फ एक झूठ से । अनकहे अल्फाजों में जो कुछ बातें रह जाती हैं उनका वजूद खो जाता है सिर्फ एक झूठ से । © दीप्ति शर्मा

मुझे याद करोगे

हर राह हर कदम मेरे इंतज़ार में थाम लोगे ज़ज़्बात हर सहर में अपने तुम मुझे याद करोगे । सूनी रातों में आँखों में जो अश्क लाओगे तो उदास चेहरे में तुम मुझे याद करोगे । हर रात हर पहर अनकहे अल्फाजों में कुछ कहकर और सब कुछ सहकर तुम फरियाद करोगे रोओगे और तुम मुझे याद करोगे । वो अश्क जो मैंने बहाये उनका क्या कभी तुम हिसाब करोगे हर पहर बस तुम मुझे याद करोगे । बिसरी बातें याद कर हर कठिनाई में घुटने मोड़ बैठकर चेहरे को ढक कर जब तुम आह भरोगे उस आह में भी तुम मुझे याद करोगे । रेत पर अँगुलियाँ फिरा थामना जो चाहोगे उसे वो फिसल जायेगा और उड़ती हवाओं को छूकर उन हवाओं में भी तुम मुझे याद करोगे । बहते पानी के साथ जो आँसू बहाओगे साथ चाहोगे जब चलना किसी के उस सफर मे जो हाथ, किसी का साथ चाहोगे तो मुझे याद करोगे । अब सोचा है मैंने ना कोई सुबह मेरी ना कोई शाम है पर हर सुबह शाम मेरी ही बात करोगे धड़कनों के थमने तक हर एक साँस में तुम मुझे याद करोगे । अकेले होगे जब तंहाई के पास में मुँह मोड़ लेंगे जब अपने ही तूफ़ान में उन अपनों के बीच हर गिले याद करोगे उन फा

गुलाम हूँ मैं पीढ़ियों से..

रोज की तरह आज भी सूरज अस्त हो गया और आँखमिचोली करता उसी पहाड़ी के पीछे छुप गया, वो परछाईं भी तो धुँधली सी पड़ गयी है या शायद मेरी नजर, एक वक्त के बाद पर वो आवाज़ अब भी गूँजती है वहाँ मेरे कानों में.... और तुम मुझसे कहा करती थीं ना कि " मुझे इस तलहटी से बहुत प्यार है एक दुनिया है मेरी जिसमें जी भर जीना चाहती हूँ पर जीने नहीं दिया जाता । पल पल सहमी हुयी डरी सी सोचती हुई सवाल करती हूँ.. ये हिसाब शब्द किसने बनाया, क्या जानते हो तुम ? मुझे तो सांसों तक का हिसाब देना पड़ता है । मेरी भी अपनी दुनिया है भले ही आभासी क्यों ना हो, जिसमें मैं जीना चाहती हूँ .. खुश रहना चाहती हूँ । विक्षिप्त सी मैं रोज आँखें खोलती हूँ जीने की उम्मीद में नहीं अपितु कुछ अलग, कुछ नया करने की चाह में.. जो मुझे खींच लाती है यहाँ इस पहाड़ी की तलहटी में... । जहाँ आकर कुछ सुकुन सा पाती हूँ वो दूर गिरता झरना कुछ अलग प्रमाद भर देता है मेरे भीतर, तो लगने लगता है मेरी दुनिया, मेरे सपने मेरे हैं बस मेरे और अगले ही पल सब बिखर जाता है... कैसे मेरे सपने मेरे हो जायेंगे.. मैं लड़की हूँ.... गुला