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Showing posts from April, 2012

मैं कोई किस्सा सुनाऊँगी कभी

मैं कोई किस्सा सुनाऊँगी कभी आँखो से आँसू बहाऊँगी कभी तुम सुन सको तो सुन लेना स्याह रात की बिसरी बातें मैं तुम्हें बताऊँगी कभी मैं फासलों को मिटाऊँगी कभी मैं कोई किस्सा सुनाऊँगी कभी । खो गये हैं जो आँखों के सपन मैं वो सपन दिखाऊँगी कभी भूल गये हो जो तुम मुझे अब मैं याद अपनी दिलाऊँगी कभी मैं कोई किस्सा सुनाऊँगी कभी । जब तुम मेरे पास आ जाओगे तुम्हें अपना बनाऊँगी कभी जिंदगी के हर पन्ने को यूँ बेनकाब कर हर लफ़्ज़ में कुछ हालात बताऊँगी कभी मैं कोई किस्सा सुनाऊँगी कभी । © दीप्ति शर्मा

यादें

जिंदगी की पोटली में बंधी वो सुनहरी यादें यूँ बेनकाब हो रही हैं जैसे किसी पिंजड़े से वो आजाद हो रही हैं । तिरछे आईने को भेद उमड़ घुमड़ रही वो बाहर आने की चेष्टा बयां कर रही हैं । अन्तरमन में छुपे होने का अहसास कर और असहाय होकर मन से बाहर निकल सरेराह हो रही है । वो आजाद हो रही है । © दीप्ति शर्मा

ऊँची चोटियों का अभिमान

उन ऊँची चोटियों को कितना अभिमान है उन पर पड़ रही स्वर्णिम किरणों का आधार ही तो उनका श्रृंगार है । घाटियों की गहराई विजन में ज़ज़्ब यादों की अवहित्था इनकी मिसाल है उन ऊँची चोटियों को कितना अभिमान है । तासीर देते वो एकांत में खड़े मौन वृक्ष उन चोटियों की अटूट पहचान है जर्रे जर्रे में महकती चोटियों को छूती वो मन्द मन्द पवन हर कूचे में सरेआम है उन ऊँची चोटियों को कितना अभिमान है । © दीप्ति शर्मा