शोषित कोख
उस बारिश का रंग दिखा नहीं पर धरती भींग गयी बहुत रोई ! डूब गयी फसलें नयी कली , टहनी टूट लटक गयीं आकाश में बादल नहीं फिर भी बरसात हुई रंग दिखा नहीं कोई पर धरती कुछ सफेद ,कुछ लाल हुई लाल ज्यादा दिखायी दी खून सी लाल मेरा खून धरती से मिल गया है और सफेद रंग गर्भ में ठहर गया है, शोषण के गर्भ में उभार आते मैं धँसती जा रही हूँ भींगी जमीन में, और याद आ रही है माँ की बातें हर रिश्ता विश्वास का नहीं जड़ काट देता है अब सूख गयी है जड़ लाल हुयी धरती के साथ लाल हुयी हूँ मैं भी। -- दीप्ति शर्मा