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एक परिधि में घूमते दो नाम अपनी समान त्रिज्याओं के साथ प्रतीक्षा -रत हैं केन्द्र तक पहुँच खुद के अस्तित्व को एक दूसरे में समाने को । © दीप्ति शर्मा

मच्छर

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एक पुरानी रचना मच्छर वो गुनगुनाना तुम्हारा मेरे कानों के आस पास और मेरा तुम्हें महसूस करना कभी दिन तो कभी साँझ हर पहर तुम्हारी आवाज़ जो गूँजती रहती कानों में जो सोने तक नहीं देती गहरी नींद से भी जगा देती सुना मुझे नित नये गीत प्रमाद से भर जाते थे तुम जाने के बाद भी अपना अहसास छोड़ जाते थे तुम पर अब ना कोई राग सुनाते हो तुम मेरे सिरहाने चुपचाप चले आते हो तुम ठीक तो हो ना? कुछ बदले नजर आते हो मैं नहीं समझ पाती आहट तुम्हारे आने की पता तो तब चलता है जब डंक मारते तुम रंगे हाथों पकड़े जाते हो उफ़... कितने सारे लाल निशान और उनको खुजलाने का तोहफ़ा मुफ्त भेंट दे जाते हो ओ मच्छर सुनो ना... तुम ये चालाकी मुझे क्यों दिखाते हो पहले तो अहसास कराते थे अब बिन कोई राग सुनाए मुफ्त में काट जाते हो © दीप्ति शर्मा
दीवार पर टँगे कैनवास के रंगों को धूल की परतें हल्का कर देती हैं पर जिंदगी के कैनवास पर चढ़े रंग अनुभव की परतों से दिन प्रति दिन गहरे होते जाते हैं । - deepti sharma