पोटली
इस समतल पर पॉव रख वो चल दी है आकाश की ओर हवाओं का झूला और घाम का संचय कर शाम के बादलों से निमित्त रास्ते से अपने गूंगेपन के साथ वो टहनियों में बांधकर आंसूओं की पोटली ले जा रही है टटोलकर कुछ बादलों को वो सौंप देगी ये पोटली फिर चली आयेगी उसी राह से फडफडाती आंखों की चमक के साथ इसी उम्मीद में कि अब इन शहरों में बारिसों का शोर सुनाई नहीं देगा लोग उत्साहित होंगें पानी के सम्वाद से क्योंकि भरे हैं अब भी दुख उसी पोटली में जो बादलों ने सम्भाल रखी है - दीप्ति शर्मा