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पोटली

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इस समतल पर पॉव रख वो चल दी है आकाश की ओर हवाओं का झूला और घाम का संचय कर शाम के बादलों से निमित्त रास्ते से अपने गूंगेपन के साथ वो टहनियों में बांधकर आंसूओं की पोटली ले जा रही है टटोलकर कुछ बादलों को वो सौंप देगी ये पोटली फिर चली आयेगी उसी राह से फडफडाती आंखों की चमक के साथ इसी उम्मीद में कि अब इन शहरों में बारिसों का शोर सुनाई नहीं देगा लोग उत्साहित होंगें पानी के सम्वाद से क्योंकि भरे हैं अब भी दुख उसी पोटली में जो बादलों ने सम्भाल रखी है - दीप्ति शर्मा
दो अंगुलियों के बीच वो अनुभूति नहीं पनपती जो तुम्हारे और मेरे बीच अक्सर पनपा करती है । © दीप्ति शर्मा

रचना

 रचना क्या है?? आत्मा से निकले शब्द या कुछ भाव है ये आध्यात्मिकता अन्तरात्मा से निकले भाव की क्या दब सकती है?? या कोई मार सकता है?? मेरी रचना को रचना के भाव को जो कोमल है बहती हुयी एक नदी है जो निरंतर चलती है कभी पुराणों का व्याख्यान और मिथों को दुत्कारती इस रचना को कोई मार सकता है?? मंद हवा सी बहती दिलों को छूती दिगन्तों में बिखर फूलों सी महकती है क्या ये महक कोई चुरा सकता है?? क्या मार सकता है?? मेरी रचना को नहीं ना!! कोई नहीं मार सकता कभी भी ये उज्जवल है औऱ रहेगी । © दीप्ति शर्मा

ख़ामोशी

मांग करने लायक कुछ नहीं बचा मेरे अंदर ना ख्याल , ना ही कोई जज्बात बस ख़ामोशी है हर तरफ अथाह ख़ामोशी वो शांत हैं वहाँ ऊपर आकाश के मौन में फिर भी आंधी, बारिश धूप ,छाँव  में अहसास करता है खुद के होने का उसके होने पर भी नहीं सुन पाती मैं वो मौन ध्वनि आँधी में उड़ते उन पत्तों में भी नहीं बारिस की बूंदों में भी नहीं मुझे नहीं सुनाई देती बस महसूस होता है जैसे मेरी ये ख़ामोशी आकाश के मौन में अब विलीन हो चली है । - दीप्ति शर्मा