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शब्द

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वो शब्द छोड़ दिये हैं असहाय विचरने को खुले आसमान में वो असहाय हैं, निरुत्तर हैं कुछ कह नहीं पा रहे या कभी सुने नहीं जाते रौंध दिये जाते हैं सरेआम इन खुली सड़को पर संसद भवन के बाहर और न्यायालय में भी सब बहरे हैं शायद या अब मेरे शब्दों में दम नहीं जो निढाल हो जाते हैं और अक्सर बैखोफ हो घुमते कुछ शब्द जो भारी पड़ जाते हैं मेरे शब्दों से... आवाज़ तक दबा देते हैं तो क्यों ना छोड़ दूँ अपने इन शब्दों को खुलेआम इन सड़कों पर विचरने दूँ अंजान लोगों में शायद यूँ ही आ जाये सलीका इन्हें जीने का । © दीप्ति

मैं कद्र करती हूँ

एक ऐसा इंसान जो सच के लिये जीता हो... त्याग, सदभावना में विश्वास हो.. मैं भी एक ऐसे इंसान को जानती हूँ सच में ऐसे लोग बहुत कम होते हैं.. कुछ पंक्तियाँ मेरी तरफ से.. वो आत्मविश्वास जिससे खुद आगे बढ़ते जाये तलाश ले मंज़िल उन हौसलों की जो अत्यधिक अटूट हैं मैं कद्र करती हूँ । अकेले चलने का हुनर उज्जवल भविष्य को सोच निरंतर आगे बढ़ने की उत्सुकता जो प्रेरक है उस प्रेरक प्रयास की मैं कद्र करती हूँ । खुद को भी भुला दे जो कभी डगमगाये तो सम्हल जाये और हिम्मत ना हारे उस विश्वास की मैं कद्र करती हूँ । मदद कर दूसरो की सबको हँसा खुद भी मुस्कुराए हालातों से डटकर बस वो लड़ता जाये उस विशाल हृदय की मैं कद्र करती हूँ । गर्व से नतमस्तक हूँ प्रयासों से गदगद अब क्या कहूँ शब्द ही नहीं हैं बस उस इंसान की मैं कद्र करती हूँ । ©दीप्ति शर्मा
कब तक आबरू अपनी खोयेगी हैवानियत पर फूट फूटकर रोयेगी शरम करो नौजवानों, रहते तुम्हारे कब तक वो नारी काल के गाल में सोयेगी?? © दीप्ति शर्मा
जो गीत हरदम गुनगुनाये अक्सर हम उन्हें समझ ना पाये फिर भी गाते रहे गुनगुनाते रहे चाहे वो गीत अपने हो या पराये © दीप्ति शर्मा
घुटती रही जिंदगी तहख़ानों के बीच अपने ही जहर खिलाते रहे निवालों के बीच यूँ तो कशमकश भरी हैं राहें मेरी रोती भी कैसे रहकर दिलवालों के बीच । © दीप्ति शर्मा
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टकटकी आँखें गड़ाये मोटा सा चश्मा लगाये वो हर सुबह बड़े ध्यान से पढ़ा करते हैं अखबार हम देखे उनको रोज रोज पड़ जाते अचरज में बार बार तो सोचा पूछे या ना पूछे कि वो क्यों हैं परेशान अन्तत: पूछ लिया क्यों चच्चा... क्या है राज क्यों पढ़ते इतना ध्यान लगाये रोज एक ही पन्ने को आप मुरझाते से चेहरे के साथ सिर खुजलाते बोले चच्चा सुनो ओ रे बच्चा उमर हो गयी 55 साल और अब तक नहीं लगी लुगाई हाथ अखबार बाँचता हूँ हर रोज शायद मिल जाये अब तेरी चच्ची का साथ. © दीप्ति शर्मा —
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वो प्रेम की है अनुभूति उसमें आस है विश्वास है जो पनपती है प्रज्वलित हो लौ की तरह. ©दीप्ति शर्मा

जिन्दगी

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जिंदगी की सच्चाई को छुपाते हुए हर हाल में बस मुस्कुराते हुए गुजर जाता है लम्हा कभी कभी । गुजरे इस जीवन में क्या जीवन भी गुजर सकता है? शायद हाँ शायद नहीं भी बिन सच्चाई अपनाये ना जिंदगी को समझाये गुजर तो नहीं सकता हाँ कट सकता है लम्हा सच की यादों में कुछ किस्से पिरोकर विश्वास के धागे में लम्हा बढ़ सकता है जीवन कट सकता है पर अगर कहीं सच्चाई मिल जाये जो विश्वास में तो एक एक मोती हकीक़त का जैसे जुड़ने लगेगा तब ये लम्हा गुज़रने लगेगा और जिंदगी भी गुजर जायेगी हँसते हँसते । © दीप्ति शर्मा
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दिल पर तुम यूँ छा रही हो लगता है पास आ रही हो जुल्फ़ों के साये में छुप मुझे देख हाय यूँ इतरा रही हो कातिल मुस्कुराहट से तुम दिल की कली खिला रही हो रुख से अपने बलखा रही हो मुत्तसिर हो तुम मुझसे करीब आ मेरे दिल के क्यों मुझसे शरमा रही हो © दीप्ति शर्मा

फसल

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वर्षों पहले बोयी और आँसूओं से सींची फसल अब बड़ी हो गयी है नहीं जानती मैं!! कैसे काट पाऊँगी उसे वो तो डटकर खड़ी हो गयी है आज सबसे बड़ी हो गयी है कुछ गुरूर है उसको मुझे झकझोर देने का मेरे सपनों को तोड़ देने का अपने अहं से इतरा और गुनगुना रही वो अब खड़ी हो गयी है आज सबसे बड़ी हो गयी है । वो पक जायेगी एक दिन और बालियाँ भी आयेंगी फिर भी क्या वो मुझे इसी तरह चिढायेगी और मुस्कुराकर इठलायेगी या हालातों से टूट जायेगी पर जानती हूँ एक ना एक दिन वो सूख जायेगी पर खुद ब खुद © दीप्ति शर्मा

तस्वीरें

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अक्सर सवाल करती हूँ उन टँगी तस्वीरों से क्या वो बोलती हैं?? नहीं ना !! फिर क्यों एक टक यूँ मौन रह देखतीं हैं मुझे कि जैसे जानती हैं हर एक रहस्य जो कैद है मन के अँधेरे खँड़रों में क्या जवाब दे सकती हैं मेरी उलझनों का कुछ उड़ते हुए असहाय सवालों का जो मौन में दबा रखे हैं शायद कहीं भीतर । ©दीप्ति शर्मा

वो अधजली लौ

रौशनी तो उतनी ही देती है कि सारा जहाँ जगमगा दे निरंतर जल हर चेहरे पर खुशियों की नदियाँ बहा दे फिर भी नकारी जाती है क्यों?? वो अधजली लौ मूक बन हर विपत्ति सह पराश्रयी बन जलती जाती परिंदों को आकर्षित कर जलाने का पाप भी सह जाती फिर भी दुत्कारी जाती है क्यों?? वो अधजली लौ जीवन पथ पर तिल तिल जलती आघृणि नहीं बन कर शशि हर घर को तेज से अपने रौशन करते हुए है चलती फिर भी धिक्कारी जाती है क्यों?? वो अधजली लौ अपना अस्तित्व कब खोज पायेगी दूसरों के लिये नहीं अपने लिये ये भी मुस्कुराकर जी जायेगी बनावटी नहीं खालिस बन कब पहचानी जायेगी?? वो अधजली लौ
यथार्थ के नीले गगन में बह रहें हैं भाव मेरे पीर परायी सुन सुनकर दिल में उपजे हैं घाव मेरे सुनो जरा क्या हुआ है देखो तुम बन गये हो हमराज मेरे मधुर गीत सुनकर तुम्हारे गूँज उठे हैं राग मेरे तराशा है खुद को तुम्हारे लिये तुम बन गये हो अभिमान मेरे ©दीप्ति शर्मा
धमकी देकर बचतें हो तहख़ानों में क्यों छुपते हो सामने आकर करो प्रहार मंत्रालय से क्यों बकते हो । © दीप्ति शर्मा
कब कहती रूक जाऊँगी मैं तुमको जो ना पाऊँगी गहरे दरिया की मैं कश्ती अकेले पार पा जाऊँगी । © दीप्ति शर्मा

नयन

वरालि सी हो चाँदनी लज्जा की व्याकुलता हो तेरे उभरे नयनों में । प्रिय विरह में व्याकुल क्यों जल भर आये? तेरे उभरे नयनों में । संचित कर हर प्रेम भाव प्रिय मिलन की आस है तेरे उभरे नयनों में । गहरी मन की वेदना छुपी बातों की झलक दिखे तेरे उभरे नयनों में । वनिता बन प्रियतम की प्रिय के नयन समा जायें तेरे उभरे नयनों में । © दीप्ति शर्मा

क्यों प्राण प्रियतम आये ना ??

चाँदनी ढल जायेगी फिर क्या मिलन बेला आयेगी मिलने को व्याकुल नयन ये तो क्यों प्राण प्रियतम आये ना??  नयन बदरा छा गये रिम-झिम फुहारों की घटा मुझमें समाने और अब तक क्यों प्राण प्रियतम आये ना?? विरह की इस वेदना को अनुपम प्रेम में ढाल अमानत बनाने मुझे अपनी क्यों प्राण प्रियतम आये ना?? मुख गरिमा के चंचल तेवर अलौकिक कर हर प्रेम भाव मेरे मुख दर्पण के भाव देखने क्यों प्राण प्रियतम आये ना?? निहारिका सा प्रेम रूप छलकत निकट पनघट निहारने उस प्रेम को क्यों प्राण प्रियतम आये ना?? दीप्ति शर्मा

तुम आओगे ना ??

अहसासों के दरमियां मेरे ख़्वाबों को जगाने जब तुम आओगे ना कुछ शरामऊँगी  मैं धडकनों को थामकर कुछ बहक सा जाऊँगी मैं मुझे बहकाने तुम आओगे ना ???? इठलाती सी धूप में रूख पर नक़ाब गिराने जब तुम आओगे ना तेज़ किरणें शरमा जायेंगी तुम्हारे अक्स के आ जाने से मेरी परछाई को ख़ुद में समाने तुम आओगे ना ???? अकेलेपन में भींगी आँखों के आंसूओं को पोंछने  जब तुम आओगे ना एक मुस्कान खिल जायेगी कुछ किस्से सुनने भटकती इस ज़िंदगी में मुझे अपना बनाने आरजुओं को जगाने तुम आओगे ना ???? दो नहीं एक ही है हम इस हौसले को बढ़ाने जब तुम आओगे ना चाँद की चाँदनी तेज़ हो अपना तेज़ फैलायेगी उसकी रौशनी मुझ तक आकर तेरा अहसास करायेगी अहसास कराने अपना तुम आओगे ना ???? कह दो एक बार तुम आओगे ना ???? तुम आओगे !!!!! दीप्ति शर्मा 

हिमालय

हिमालय की मौन आँखों में शान्त माहौल के परिवेश में कुछ प्रश्नों को देखा है मैंने । खड़ा तो है अडिग पर उसके माथे की सलवटों पर    थकावट के अंशों को देखा है मैंने । प्रताड़ित होता है वो तो क्यों ? नहीं समझते हो तुम क्रोधित हो वो कैसे हिला दे धरती को ये देखा है मैंने । जब बहती हुयी पवन कुछ कहकर पैगाम सुनाती है तो पैगाम -ए - दर्द को छलकते धरती पर बहते देखा है मैंने । कभी ज्वाला सा जल जाता है और कभी नदियाँ बन बह जाता है उसे पिघलते रोते देखा है मैंने । भयानक क्रोध में तपते बादल की तरह फटकर तबाही फैलाते हुए देखा है मैंने । अभिमान करो ना प्रतिकार करो दर्द से बिलखते पिघलते उस अटूट ह्रदय को टूटते देखा है मैंने । - दीप्ति शर्मा 

चौराहा

जिंदगी का ये चौराहा , अपने दम पर गर्वित हाथ फैलाये खड़ा ,कुछ इठलाकर , सोचे कि मंजिल दिखता है सबको राह बताता है । जिंदगी के इस चौराहे पर कितनी ही गाड़िया आती चली जाती हैं , फिर बचती है बस वो सूनी खाली राह , इंतज़ार में फिर किसी मुसाफ़िर के जो आयेगा और अपनी मंजिल पायेगा , बढता चला जायेगा । पर जब राह ही मालूम ना हो तो ये क्या आभास करायेगा , राह दिखाने का आभास या राह में अकेले खो जाने का आभास ।  क्या ये चौराहा अकेलेपन में चुभती उस साँस को कुछ आस दिलायेगा या देख उसे हँसता जायेगा , जोर से या मन ही मन उसका उपहास उड़ायेगा । सूनसान  और अकेले उन रास्तों पर खो जाने का डर तो होगा पर एक विश्वास भी होगा उस चौराहे पर , जहाँ कोई तो आयेगा जो राह दिखायेगा , मंजिल दिलायेगा । पर ये चौराहा करता रहेगा इंतज़ार हर रोज नयी उम्मीद लिए नये मुसाफ़िरों का । - दीप्ति शर्मा 

ब्लॉग की दूसरी वर्षगाँठ 28/7/20012

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नमस्कार ,                  मुझे ये बताते हुए बहुत हर्ष हो रहा है कि आप सभी मित्रों , गुरुजनों के आशीष एवं सहयोग से और आप सभी की छत्रछाया में मेरे ब्लॉग ने अपने 2 वर्ष पुरे कर लिए हैं । बस यूँ ही अपना मार्गदर्शन एवं सहयोग देते रहियेगा ,,, आभारी हूँ ,,,, शुक्रिया ।

हिसाब

हिसाब ना माँगा कभी अपने गम का उनसे पर हर बात का मेरी वो मुझसे हिसाब माँगते रहे । जिन्दगी की उलझनें थीं पता नही कम थी या ज्यादा लिखती रही मैं उन्हें और वो मुझसे किताब माँगते रहे । काश ऐसा होता जो कभी बीता लम्हा लौट के आता मैं उनकी चाहत और वो मुझसे मुलाकात माँगते रहे । कुछ सवाल अधूरे  रह गये जो मिल ना सके कभी मैंने आज भी ढूंढे और वो मुझसे जवाब माँगते रहे । - दीप्ति शर्मा

बरसात

रिमझिम बरस जाती हैं बूंदे जब याद तुम्हारी आती है । बिन मौसम ही मेरे घर में वो बरसात ले आती है । जब पड़ी मेह की बूंदे मुस्कुराते उन फूलों पर हर्षित फूलों पर वो बूंदे तेरा चेहरा दिखाती है । नाता तो गहरा है इन बूंदो का तुझसे चाहे तेरी याद हो या ये बरसात हो मुझे तो  दोनों भिगो जाती हैं । - दीप्ति शर्मा

प्राण प्रिये

वेदना संवेदना अपाटव  कपट को त्याग बढ़ चली हूँ मैं हर तिमिर की आहटों का पथ बदल अब ना रुकी हूँ मैं साथ दो न प्राण लो अब चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये । निश्चल हृदय की वेदना को छुपते हुए क्यों ले चली मैं प्राण ये चंचल अलौकिक सोचते तुझको प्रतिदिन आह विरह का त्यजन कर चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये । अपरिमित अजेय का पल मृदुल मन में ले चली मैं तुम हो दीपक जलो प्रतिपल प्रकाश गौरव  बन चलो अब चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये । मौन कर हर वितथ  पनघट साथ नौका की धार ले चली मैं मृत्यु की परछाई में सुने हर पथ की आस ले चली मैं दूर से ही साथ दो अब चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये । --- दीप्ति शर्मा 

किसी की आहटों का अहसास

बुझा हुआ सा चेहरा मुरझाये से हालात कहा करते हैं अक्सर कि इंतज़ार रहेगा तुम्हारा चाँद के ढलने से चाँद के उगने तक.. महसूस करती हूँ कभी वो आहटें और कभी कोई आवाज़ जो मेरा नाम ले पुकारती हैं मुझे और कहती हैं कि ये नाम रहेगा सदा मेरे साथ भी मेरे बाद भी.. निश्छल मन में कई संवेदनाएँ होती है जो गहराती हैं अक्सर और बारिश की बूँदों में बह भी जाती हैं ये भावनाओं को भी बहाती हैं और कहती हैं.. ये भावनाएँ रहेगी मेरी तेरी सांसों के मेरी सांसों से मिलने तक । © दीप्ति शर्मा
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इंतिहाऐं इश्क की कम नहीं होती वो अक्सर टूट जाया करती हैं मुकम्मल सी वो कुछ यादें बातों के साथ छूट जाया करती हैं पहलू बदल जाते हैं जिंदगी के उन तमाम किस्सों को जोड़ते जुड़ती है तब जब ये साँसे डूब जाया करती हैं ©दीप्ति शर्मा

याद आये रात फिर वही

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  अहद तेरा यूँ लेकर दिल में याद आये रात फिर वही बदगुमान बन तेरी चाहत में अपने हर एहसास लिये मुझे याद आये रात फिर वही अनछुये से उस ख़्वाब का बेतस बन पुगाने में मुझे याद आये रात फिर वही उनवान की खामोशी में सदियों की तड़प दिखे और याद आये रात फिर वही तेरे ख़्यालों में खोयी ये जानती हूँ तू नहीं आयेगा फिर भी मुझे, याद आये रात फिर वही याद आये बात फिर वही । © दीप्ति शर्मा

तू हो गयी है कितनी पराई ।

अथाह मन की गहराई और मन में उठी वो बातें हर तरफ है सन्नाटा और ख़ामोश लफ़्ज़ों में कही मेरी कोई बात किसी ने भी समझ नहीं पायी कानों में गूँज रही उस इक अजीब सी आवाज़ से तू हो गयी है कितनी पराई । अब शहनाई की वो गूँज देती है हर वक्त सुनाई तभी तो दुल्हन बनी तेरी वो धुँधली परछाईं अब हर जगह मुझे देने लगी है दिखाई कानों में गूँज रही उस इक अजीब सी आवाज़ से तू हो गयी है कितनी पराई । पर दिल में इक कसर उभर कर है आई इंतज़ार में अब भी तेरे मेरी ये आँखें हैं पथराई बाट तकते तेरी अब बोझिल आहें देती हैं दुहाई पर तुझे नहीं दी अब तक मेरी धड़कनें भी सुनाई कानों में गूँज रही उस इक अजीब सी आवाज़ से तू हो गयी है कितनी पराई । © दीप्ति शर्मा

कोई तो बात होती है ।

लहरों से बहने के साथ में हर लफ़्ज़ से निकली बात में अँधियारी सी उस रात में कोई तो बात होती है । ख़ामोशी से कह जाने में कुछ छुपने और छुपाने में धड़कनों को बहलाने में कोई तो बात होती है । कोई गीत गुनगुनाने में किसी के याद आने में आँसुओं के बह जाने में कोई तो बात होती है । कभी दिल को समझाने में तो कभी बहक सा जाने में अहसासों को जगाने में कोई तो बात होती है । कोई किस्सा सुनाने में बीती यादों के खो जाने में हालातों को सहलाने में कोई तो बात होती है । उन बातों में जान होती है यूँ ही बस कुछ लम्हों से अनायास पहचान होती है । © दीप्ति शर्मा

माँ

जब पहला आखर सीखा मैंने लिखा बड़ी ही उत्सुकता से हाथ पकड़ लिखना सिखलाया ओ मेरी माँ वो तू ही है । अँगुली पकड़ चलना सिखलाया चाल चलन का भेद बताया संस्कारों का दीप जलाया ओ मेरी माँ वो तू ही है । जब मैं रोती तो तू भी रो जाती साथ में मेरे हँसती और हँसाती मुझे दुनिया का पाठ सिखाती ओ मेरी माँ वो तू ही है । खुद भूखा रह मुझे खिलाया रात भर जगकर मुझे सुलाया हालातों से लड़ना तूने सिखाया ओ मेरी माँ वो तू ही है । © दीप्ति शर्मा

मैं कोई किस्सा सुनाऊँगी कभी

मैं कोई किस्सा सुनाऊँगी कभी आँखो से आँसू बहाऊँगी कभी तुम सुन सको तो सुन लेना स्याह रात की बिसरी बातें मैं तुम्हें बताऊँगी कभी मैं फासलों को मिटाऊँगी कभी मैं कोई किस्सा सुनाऊँगी कभी । खो गये हैं जो आँखों के सपन मैं वो सपन दिखाऊँगी कभी भूल गये हो जो तुम मुझे अब मैं याद अपनी दिलाऊँगी कभी मैं कोई किस्सा सुनाऊँगी कभी । जब तुम मेरे पास आ जाओगे तुम्हें अपना बनाऊँगी कभी जिंदगी के हर पन्ने को यूँ बेनकाब कर हर लफ़्ज़ में कुछ हालात बताऊँगी कभी मैं कोई किस्सा सुनाऊँगी कभी । © दीप्ति शर्मा

यादें

जिंदगी की पोटली में बंधी वो सुनहरी यादें यूँ बेनकाब हो रही हैं जैसे किसी पिंजड़े से वो आजाद हो रही हैं । तिरछे आईने को भेद उमड़ घुमड़ रही वो बाहर आने की चेष्टा बयां कर रही हैं । अन्तरमन में छुपे होने का अहसास कर और असहाय होकर मन से बाहर निकल सरेराह हो रही है । वो आजाद हो रही है । © दीप्ति शर्मा

ऊँची चोटियों का अभिमान

उन ऊँची चोटियों को कितना अभिमान है उन पर पड़ रही स्वर्णिम किरणों का आधार ही तो उनका श्रृंगार है । घाटियों की गहराई विजन में ज़ज़्ब यादों की अवहित्था इनकी मिसाल है उन ऊँची चोटियों को कितना अभिमान है । तासीर देते वो एकांत में खड़े मौन वृक्ष उन चोटियों की अटूट पहचान है जर्रे जर्रे में महकती चोटियों को छूती वो मन्द मन्द पवन हर कूचे में सरेआम है उन ऊँची चोटियों को कितना अभिमान है । © दीप्ति शर्मा
creation 10th class दुनिया की भीड़ से कोई पुकार कर रहा है ऐसा लगता है कि हमें कोई याद कर रहा है दिल के गुलशन को आबाद कर रहा है अकेले हैं दुनिया में ये जानकर कोई दरियाफ्त कर रहा है साहिलों में खड़े हो कोई लहरों पर हमारा इंतज़ार कर रहा है । © दीप्ति शर्मा

क्यों??

क्यों कभी कोई ख़ामोशी टूटती नज़र नहीं आती मेरे अहसासों के दामन में दबी जुबां से क्यूँ कोई ख़ुशी नज़र नहीं आती वक्त-ए-दुआ देगा कोई इस आसार में जीती मैं पर जीने की कोई उम्मीद दिल में नज़र नहीं आती आगे तो बढ़ना चाहती हूँ मैं पर क्यूँ मुझे आगे बढ़ने की कोई वजह नज़र नहीं आती क्यूँ मेरे लिये किसी की हँसी नज़र नहीं आती । © दीप्ति शर्मा

वो

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झटक कर जाती है जुल्फ़े बड़ा इतराती है वो क्या पता कितनों के दिल पर कहर ढ़ाती है वो जानते हैं ये जुल्फ़े उनकी नहीं खरीद बाजार से घर पर नकली जुल्फ़े लगाती है वो देखो जरा नकली जुल्फ़ों के दम पर कितने ठुमके लगाती है वो मत मरो ए दिवानों इसकी अदाओं पर अदाओं से ही घायल बनाती है वो ©दीप्ति शर्मा

उसने

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जब झलक गये मेरे आँसू जो दिखे नहीं महसूस हुए पर देख लिया उसने इसको पहचान लिया उसने मुझको उस रिम-झिम सी फुआर में । उलझ गये जब ये केश मेरे जो बिखर गये ना सुलझ सके थाम लिया उसने उनको सम्हाल लिया उसने मुझको उस तूफ़ानी बयार में। पलछिन में उसने छुपा लिया मुझको आँखों में बसा लिया क़ैद किया उसने मुझको अपने गहरे ज़ज्बात में। © दीप्ति शर्मा

दिल के अहसास

1. हर इक रस्म निभा जाना आसान नहीं, बस सोचना ही आसान होता है । 2. तस्वीरें अहसास कराती हैं अपनों के पास होने का उसकी अहमियत कोई समझे ये जरूरी तो नहीं । 3. दिल जल जाते हैं हाथों को जलाने से क्या होगा गर चाहे वो मुझे तो याद आयेगी उसे मेरे याद दिलाने से क्या होगा । 4. जब नाम दिल पर लिखा हो कागज से मिटाकर क्या पा लोगे हस्ती है मेरे प्यार की रौशन ख़्वाबों में जो तुम मुझे ना पाओ तो ख़्वाब सुनहरे कैसे सजा लोगे ।

क्या मैं अकेली थी

सुनसान सी राह और छाया अँधेरा गिरे हुए पत्ते उड़ती हुयी धूल उस लम्बी राह में मैं अकेली थी । चली जा रही सब कुछ भूले ना कोई निशां ना कोई मंजिल उस अँधेरी राह में मैं अकेली थी । तभी एक मकां दिखा रस्ते में बिन सोचे मैं वहाँ दाखिल हुयी उजाला तो था चिरागों का पर उन चिरागों में मैं अकेली थी । रुकी वहाँ और सोचा मैंने है कोई नहीं यहाँ तो चलूं आगे के रस्ते में फिर निकल पड़ी पर उस रस्ते पर मैं अकेली थी । छोड़ दिया उस मकां का रस्ता देखा बाहर जो मैंने उजाला था राह में लोग खड़े थे मेरे इंतजार में वहाँ ना अँधेरा था ना ही विराना बस था साथ और विश्वास उन सबके साथ उस साये में आकर फिर मैंने सोचा क्या सच में मैं अकेली थी या ये सिर्फ एक पहेली थी । ©.दीप्ति शर्मा

मौत

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भयावह रूप ले वो क्यूँ, इस तरह जिद् पर अड़ी है बड़ी क्रुर दृष्टि से देख रही मुझे देखो मौत मेरे सामने खड़ी है । ये देख खुश हूँ मैं अपनो के साथ जाने क्या सोच रही है कुछ अजीब सी मुद्रा में देखो मौत मेरे सामने खड़ी है । चली जाऊंगी मैं साथ उसके नहीं डर है मुझे उसका फिर क्यों वो संशय में पड़ी है देखो मौत मेरे सामने खड़ी है । कभी गुस्से में झल्ला रही है कभी हौले हौले मुस्कुरा रही है इस तरह मुझे वो फँसा रही है देखो मौत मेरे सामने खड़ी है । देख मेरे अपनों की ताकत और मेरे हौसलों की उड़ान से वो सकपका रही है देखो मौत मुझसे दूर जा पड़ी है । ले जाना चाहती थी साथ मुझे अब वो मुझसे दूर खड़ी है मेरे अपनों के प्यार से वो छोड़ मुझे मुझसे दूर चली है । © दीप्ति शर्मा

ए बसंत तेरे आने से

ए बसंत तेरे आने से नाच रहा है उपवन गा रहा है तन मन ए बसंत तेरे आने से । खेतों में लहराती सरसों झूम रही है अब तो मानो प्रभात में जग रही है ए बसंत तेरे आने से । चिड़िया भी चहकती है भोर में गीत गाती है घर में खुशियाँ आती हैं ए बसंत तेरे आने से । खिल गयी सरसों बिखर गयी खूशबू मनमोहक हो गया नज़ारा ए बसंत तेरे आने से । ,,,"दीप्ति शर्मा "

मुझे अच्छा लगेगा

सुबह की रोशनी की तरह मुस्कुराओ सदा, जिंदगी की महफ़िल में साथ दो मेरा, मुझे अच्छा लगेगा । ना हो खफा बस खिलखिलाओं सदा, दिल में प्यार जगाओ, तुम मुझे अपना बनाओ, मुझे अच्छा लगेगा । दिल में मेरे बस भी जाओ, इतराकर शरमाकर मेरी बाँहों में तुम आ भी जाओ, कह दो चाहत भरी दो बातें, मुझे अच्छा लगेगा । ,,," दीप्ति शर्मा "

हर लम्हा है तुम्हारा, इसे अपनाकर तो देखो । तन्हा हो कभी तो हमें याद करके दिल में बसाकर तो देखो । हम लगेंगे तुम्हें अपने हमसे ऩजरे मिलाकर तो देखो । याद करो ना करो हम तुम पर मरतें हैं एक बार आज़माकर तो देखो । इस दिल ने तुम्हें चाहा है ये दिल है तुम्हारा इसे अपना बनाकर तो देखो । तुम दिवाने हो जाओगे हमारे बस एक बार हमसे हाथ मिलाकर तो देखो । इधर हाथ बढ़ाकर तो देखो । ,,, " दीप्ति शर्मा "

बातें उसकी दिल तडपाने लगी हैं,  यादें उसकी दिल जलाने लगी हैं । मुश्किल से ही सही पर अब,  याद उसकी दिल से जाने लगी है । ख़ामोशियाँ लवों पर छाने लगी हैं । तंहाईयाँ दिल में समाने लगी हैं । मेरी आँखें आँसू बहाने लगी हैं । ऎसा लगता है जाने से उसके, दिल की धड़कन भी अब, साथ छोड़ मेरा जाने लगी है । ,,,,," दीप्ति शर्मा "

मैं रुक गयी होती

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जब मैं चली थी तो तुने रोका नहीं वरना मैं रुक गयी होती | यादें साथ थी और कुछ बातें याद थी ख़ुशबू जो आयी होती तेरे पास आने की तो मैं रुक गयी होती | सर पर इल्ज़ाम और अश्कों का ज़खीरा ले मुझे जाना तो पड़ा बेकसूर समझा होता तो मैं रुक गयी होती | तेरे गुरुर से पनपी इल्तज़ा ले गयी मुझे तुझसे इतना दूर उस वक़्त जो तुने नज़रें मिलायी होती तो मैं रुक गयी होती | खफा थी मैं तुझसे या तू ज़ुदा था मुझसे उन खार भरी राह में तुने रोका होता तो शायद मैं रुक गयी होती | बस हाथ बढाया होता मुझे अपना बनाया होता दो घड़ी रुक बातें जो की होती तुमने तो ठहर जाते ये कदम और मैं रुक गयी होती | _------ "दीप्ति शर्मा "

ये आँखें

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कभी अनमोल मोतियों  को गिरा देती हैं | तो कभी बहुत कुछ  अपने में छुपा लेती हैं , ये आँखें |    -- " दीप्ति शर्मा "

अब क्या करना है |

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इत्मिनान से जी लूँ लिख लूँ कुछ नगमें जो ज़ज्बात से भरें हों फिर सोचूँगी की मुझे अब क्या करना है | गढ़ लूँ कुछ नये आयाम सतत बढूँ दीर्घ गूंज से ले मैं रुख पर नकाब फिर सोचूँगी की मुझे अब क्या करना है | स्मरण कर उन्मुक्त स्वर स्वछन्द गगन में टहलूं सहजभाव से स्मृतियों में कुछ ख्यालों को छुला लूँ फिर सोचूँगी की मुझे अब क्या करना है | महसूस कर लूँ एहसास तेरे यहाँ आने का बरस जाये बरखा सावन भर आये और तुझसे मिलन हो जाएँ फिर सोचूँगी की मुझे अब क्या करना है | --- दीप्ति शर्मा