मेरी परछाई
वो कैसी आह की परछाई हैं मैंने खुद को लहरों मे डुबो, तूफानों से ये कश्ती बचायी है | जिस पर अब तक सम्भल मेरी जिंदगी चली आई है | हैं राहें कश्मकस भरी , अजनबी लोगो में रह किस तरह बात समझ पाई है | मुददत से अकेली हूँ मैं , तमन्नाये जीने की मैने तो ये बाजी खुद ही गंवाई है | वो गैरों के भरोसये शौक में आह में डूब ढलती हुई , फिरती वो मेरी ही परछाई है | - दीप्ति शर्मा
Comments
शुभकामनाएं......
निरंतर प्रगति करती रहें.....
सादर
और शुभकामनाये ....
:-)
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रचनात्मकता बनी रहे....लेखनी अनवरत चलती रहे...
शुभकामनाएं दीप्ति जी.
अनु
मेरी नयी पोस्ट:- जानिए पिक्सल क्या होता है?