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Showing posts from January, 2012

ए बसंत तेरे आने से

ए बसंत तेरे आने से नाच रहा है उपवन गा रहा है तन मन ए बसंत तेरे आने से । खेतों में लहराती सरसों झूम रही है अब तो मानो प्रभात में जग रही है ए बसंत तेरे आने से । चिड़िया भी चहकती है भोर में गीत गाती है घर में खुशियाँ आती हैं ए बसंत तेरे आने से । खिल गयी सरसों बिखर गयी खूशबू मनमोहक हो गया नज़ारा ए बसंत तेरे आने से । ,,,"दीप्ति शर्मा "

मुझे अच्छा लगेगा

सुबह की रोशनी की तरह मुस्कुराओ सदा, जिंदगी की महफ़िल में साथ दो मेरा, मुझे अच्छा लगेगा । ना हो खफा बस खिलखिलाओं सदा, दिल में प्यार जगाओ, तुम मुझे अपना बनाओ, मुझे अच्छा लगेगा । दिल में मेरे बस भी जाओ, इतराकर शरमाकर मेरी बाँहों में तुम आ भी जाओ, कह दो चाहत भरी दो बातें, मुझे अच्छा लगेगा । ,,," दीप्ति शर्मा "

हर लम्हा है तुम्हारा, इसे अपनाकर तो देखो । तन्हा हो कभी तो हमें याद करके दिल में बसाकर तो देखो । हम लगेंगे तुम्हें अपने हमसे ऩजरे मिलाकर तो देखो । याद करो ना करो हम तुम पर मरतें हैं एक बार आज़माकर तो देखो । इस दिल ने तुम्हें चाहा है ये दिल है तुम्हारा इसे अपना बनाकर तो देखो । तुम दिवाने हो जाओगे हमारे बस एक बार हमसे हाथ मिलाकर तो देखो । इधर हाथ बढ़ाकर तो देखो । ,,, " दीप्ति शर्मा "

बातें उसकी दिल तडपाने लगी हैं,  यादें उसकी दिल जलाने लगी हैं । मुश्किल से ही सही पर अब,  याद उसकी दिल से जाने लगी है । ख़ामोशियाँ लवों पर छाने लगी हैं । तंहाईयाँ दिल में समाने लगी हैं । मेरी आँखें आँसू बहाने लगी हैं । ऎसा लगता है जाने से उसके, दिल की धड़कन भी अब, साथ छोड़ मेरा जाने लगी है । ,,,,," दीप्ति शर्मा "

मैं रुक गयी होती

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जब मैं चली थी तो तुने रोका नहीं वरना मैं रुक गयी होती | यादें साथ थी और कुछ बातें याद थी ख़ुशबू जो आयी होती तेरे पास आने की तो मैं रुक गयी होती | सर पर इल्ज़ाम और अश्कों का ज़खीरा ले मुझे जाना तो पड़ा बेकसूर समझा होता तो मैं रुक गयी होती | तेरे गुरुर से पनपी इल्तज़ा ले गयी मुझे तुझसे इतना दूर उस वक़्त जो तुने नज़रें मिलायी होती तो मैं रुक गयी होती | खफा थी मैं तुझसे या तू ज़ुदा था मुझसे उन खार भरी राह में तुने रोका होता तो शायद मैं रुक गयी होती | बस हाथ बढाया होता मुझे अपना बनाया होता दो घड़ी रुक बातें जो की होती तुमने तो ठहर जाते ये कदम और मैं रुक गयी होती | _------ "दीप्ति शर्मा "

ये आँखें

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कभी अनमोल मोतियों  को गिरा देती हैं | तो कभी बहुत कुछ  अपने में छुपा लेती हैं , ये आँखें |    -- " दीप्ति शर्मा "

अब क्या करना है |

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इत्मिनान से जी लूँ लिख लूँ कुछ नगमें जो ज़ज्बात से भरें हों फिर सोचूँगी की मुझे अब क्या करना है | गढ़ लूँ कुछ नये आयाम सतत बढूँ दीर्घ गूंज से ले मैं रुख पर नकाब फिर सोचूँगी की मुझे अब क्या करना है | स्मरण कर उन्मुक्त स्वर स्वछन्द गगन में टहलूं सहजभाव से स्मृतियों में कुछ ख्यालों को छुला लूँ फिर सोचूँगी की मुझे अब क्या करना है | महसूस कर लूँ एहसास तेरे यहाँ आने का बरस जाये बरखा सावन भर आये और तुझसे मिलन हो जाएँ फिर सोचूँगी की मुझे अब क्या करना है | --- दीप्ति शर्मा