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Showing posts from September, 2013

तुम

मैंने तुम्हारे पसन्द की चूल्हे की रोटी बनायी है वही फूली हुयी करारी सी जिसे तुम चाव से खाते हो और ये लो हरी हरी खटाई वाली चटनी ये तुम्हें बहुत पसन्द हैं ना !!! पेट भर खा लेना और अपने ये हाथ यहाँ वहाँ ना पौछना मैंने अलमारी में तुम्हारी पसन्द के सफेद बेरंगे रूमाल रख दिये हैं ले लेना उन्हें.... सब रंग बिरंगे रूमाल हटा दिये हैं वहाँ से वो सारे रंग जो तुम्हें पसन्द नहीं अब वो दूर दूर तक नहीं हैं तुम खुश तो हो ना?? सारे घर का रंग भी सफेद पड़ गया है एकदम फीका बेरंगा सा... मैंने भी तो तुम्हारी पसन्द की सफेद चुनर ओढ़ ली है अब तो तुम मुस्कुराओगे ना?? साँझ भी हो चली अब पंछी भी घरौंदे को लौटने लगे तुम कहाँ हो?? आ जाओ!! मैं वहीं आँगन में नीम के पेड़ के नीचे उसी खाट पर बैठी हूँ जो तुमने अपने हाथों से बुनी थी कह कर गये थे ना तुम कि अबकि छुट्टीयों में आओगे वो तो कबकि बीत गयी तुमने कहा था मैं सम्भाल कर रखूँ हर एक चीज तुम्हारी पसन्द की देखो सब वैसा ही है तो तुम आते क्यों नहीं क्यों ये लोग तुम्हारी जगह ये वर्दी, ये मेडल, रूपये दे रहें हैं पर मैं तो तुम्हें माँ

याद

मैंने तेज बारिश में एक बड़ी छतरी ओढ़ ली हाँ ये ही नीली छतरी पर वो तेज बारिश, मुसलाधार बारिश मुझे भीगा ही गयी । © दीप्ति शर्मा
उफ़...  देह की टूटन  तपता बदन कसैली जीभ और वो पोटला नीम हकीमों का मुँह बिचकाकर जो खा भी लूँ तो वो हिदायती मिज़ाज़ लोगों का उफ़.. अब इस बुखार में थकी देह की सुनु या खुराक से लडूं या हिदायती लोगों से...  उफ़... © दीप्ति शर्मा

वो

एकांत में एकदम चुप   कँपते ठंडे पड़े हाथों को  आपस की रगड़ से गरम करती  वो शांत है   ना भूख है  ना प्यास है  बस बैठी है  उड़ते पंछीयों को देखती  घास को छूती  तो कभी सहलाती  और कभी उखाड़ती है  जिस पर वो बैठी है   उसी बग़ीचे में  जहाँ के फूलों से प्यार है  पर वो फूल सूख रहें हैं  धीरे धीरे फीके पड़ रहें हैं  उनके साथ बैठकर  जो डर जाता रहा  अकेलेपन का  अब फिर वो हावी हो रहा है  इन फूलों के खतम होने के साथ  ये डर भी बढ़ रहा है  फिर कैसे सँभाल पाएगी  वो इन कँपते हाथों को,  लड़खड़ाते पैरों को   इन ठंडे पड़े हाथों की रगड़ भी   फिर गरमी नहीं दे पाएगी   वो भी मुरझा जायेगी  इन फूलों के साथ ।  © दीप्ति शर्मा