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Showing posts from February, 2011

जाना चाहती हूँ

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                 मैं हूँ छोटी सी पर अब बड़ी होना चाहती हूँ | उस मत्स्यालय से बाहर निकल  अपनी दुनिया में जाना चाहती हूँ| दिखावे के प्रेम को त्याग कर अपनी मर्जी से जीना चाहती हूँ |             अब मैं जी भर तैरना चाहती हूँ अपनी दुनिया में जाना चाहती हूँ | हैं मेरे अपने जहाँ    हैं मेरी खुशिया वहां  मैं उनके साथ जीना चाहती हूँ | कैद से आजाद हो मैं उन अपनों से मिलना चाहती हूँ  मैं अपनी दुनिया में जाना चाहती हूँ| - दीप्ति शर्मा

मेरी परछाई

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वो कैसी आह की परछाई हैं मैंने खुद को लहरों मे डुबो,  तूफानों से ये कश्ती बचायी है | जिस पर अब तक सम्भल मेरी जिंदगी चली आई है | हैं राहें कश्मकस भरी , अजनबी लोगो में रह किस  तरह बात समझ पाई है | मुददत से अकेली हूँ मैं , तमन्नाये जीने की मैने तो  ये बाजी खुद ही गंवाई है | वो गैरों के भरोसये शौक में आह में डूब ढलती हुई , फिरती वो मेरी ही परछाई है | - दीप्ति शर्मा 

कोई तो होगा

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कभी कोई तो होगा,  जो सिर्फ मेरा होगा, जिसकी याद सताएगी| और मुझे तडपायेगी | कोई ऐसी घडी तो आएगी  जब किसी की सांसे  मेरे बिना थम जाएँगी | चाहेगा वो मुझे इतना कि धड़कने उसकी मेरी धड़कने बन जाएगी | - दीप्ति शर्मा                             ये कविता मैने १० क्लास  मे लिखी थी                          आज आप सब के सामने लिखी है