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Showing posts from February, 2013

दुविधा

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मेरे कमरे में अब धूप नहीं आती खिड़कियाँ खुली रहती हैं हल्की सी रौशनी है मन्द मन्द सी हवा गुजरती है वहाँ से तोड़ती है खामोशी या शुरू करती है कोई सिलसिला किसी बात के शुरू होने से खतम होने तक का । कुछ पक्षी विचरते हैं आवाज़ करते हैं तोड़ देते हैं अचानक गहरी निद्रा को या आभासी तन्द्रा को । कभी बिखरती है कोई खुशबू फूलों की अच्छी सी लगती है मन को सूकून सा देती है पर फिर भी नहीं निकलता सूनापन वो अकेलापन एक अंधकार जो समाया है कहीं किसी कोने में । ©दीप्ति शर्मा

छोटी पत्तियाँ

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उन छोटी पत्तियों पर  गिर जाती है ओस कोहरा सूखा देता है उन्हें  और पतझड़ गिरा देता है  शायद ये ही उनकी नियति  है ।                                                       - दीप्ति शर्मा
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गुज़र गया जो वक़्त अब  हम उसकी बात नहीं करते  ज़ख्म सीले हैं आँसूओं से अब  हम उनसे मुलाकात नहीं करते  - दीप्ति शर्मा 

पेड़ के हरे पत्ते

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देखा था कल गिरते पेड़ के हरे पत्तों को ना आँधी आयी कोई ना पतझड़ का मौसम था बस तड़पते सहते रोते देखा था मैंने पेड़ के हरे पत्तों को आगे बढ़ना था उनको विश्वास के साथ कुछ पल जीने का साथ ही तो माँगा था पर तोड़ दिया उसने जिससे साथ चल जीने का सहारा माँगा था मुरझाते देखा था मैंने पेड़ के हरे पत्तों को किसी की चाहत के लिये डाल से अलग हो जलते देखा था मैंने पेड़ के हरे पत्तों को ©दीप्ति शर्मा

उजालों की तलाश में हूँ

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ज़फर पथ पर चल रही बिरदैत होने की फ़िराक में हूँ अभी चल रही हूँ अँधेरों पर मैं उजालों की तलाश में हूँ । क़यास लगा रही जीवन का अभी जिन्दगी के इम्तिहान में हूँ ख्वाबों में सच्चाई तलाशती मैं उजालों की तलाश में  हूँ । अल्फाज़ लिखती हूँ कलम से आप तक पहुँचाने के इंतज़ार में हूँ उलझनों को रोकती हुयी मैं उजालों की तलाश में हूँ । परछाइयों को सँभालते हुए गुज़रे वक़्त की निगाह में हूँ उनसे संभाल रही हूँ कदम मैं उजालों की तलाश में हूँ । - दीप्ति शर्मा