यादें


जिंदगी की पोटली में
बंधी वो सुनहरी यादें
यूँ बेनकाब हो रही हैं
जैसे किसी पिंजड़े से
वो आजाद हो रही हैं ।

तिरछे आईने को भेद
उमड़ घुमड़ रही वो
बाहर आने की चेष्टा
बयां कर रही हैं ।

अन्तरमन में छुपे होने
का अहसास कर
और असहाय होकर
मन से बाहर निकल
सरेराह हो रही है ।
वो आजाद हो रही है ।
© दीप्ति शर्मा

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