एक परिधि में घूमते दो नाम
अपनी समान त्रिज्याओं के साथ
प्रतीक्षा -रत हैं
केन्द्र तक पहुँच
खुद के अस्तित्व को
एक दूसरे में समाने को ।
© दीप्ति शर्मा
मेरी परछाई
वो कैसी आह की परछाई हैं मैंने खुद को लहरों मे डुबो, तूफानों से ये कश्ती बचायी है | जिस पर अब तक सम्भल मेरी जिंदगी चली आई है | हैं राहें कश्मकस भरी , अजनबी लोगो में रह किस तरह बात समझ पाई है | मुददत से अकेली हूँ मैं , तमन्नाये जीने की मैने तो ये बाजी खुद ही गंवाई है | वो गैरों के भरोसये शौक में आह में डूब ढलती हुई , फिरती वो मेरी ही परछाई है | - दीप्ति शर्मा
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बजरंगी नापें परिधि, होय मिलन अद्वितीय ||