सुनसान रस्ते
डर सा लगता है
अकेले चलने में
अँधियारे और तन्हा से
उन सुनसान रस्तों पर ।
जहाँ कोई नहीं गुजरता
बस एक एहसास है मेरा
जो विचरता है ठहरता है
और फिर चल पड़ता है
उन सुनसान रस्तों पर ।
चौराहे तो बहुत हैं पर
कोई सिग्नल नही
ना कोई आवाज़ आती है
जो रोक सके मुझे
उन सुनसान रस्तों पर ।
गहरे कोहरे और
जोरदार बारिश में भी
पलते हैं ख्याल
जो उड़ते दिखायी देते हैं
बादलों की तरह
और मेरा साथ देते हैं
उन सुनसान रस्तों पर ।
मैं तो बस चलती हूँ
अपने अहसास लिये
कुछ ख़्वाब लिये और
छोड़ जाती हूँ पदचाप
मंज़िल पाने की चाह में
उन सुनसान रस्तों पर ।
© दीप्ति शर्मा
Comments
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♥सादर वंदे मातरम् !♥
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मैं तो बस चलती हूँ
अपने अहसास लिये
कुछ ख़्वाब लिये और
छोड़ जाती हूँ पदचाप
मंज़िल पाने की चाह में
उन सुनसान रस्तों पर...
बहुत अच्छा लिखा है
दीप्ति जी
एक गीत याद आ रहा है , सुनाऊं ?
रुक जाना नहीं , तू कहीं हार के
कांटों पे चलके मिलेगे साये बहार के
सूरज देख रुक गया है
तेरे आगे झुक गया है
जब कभी ऐसे कोई मस्ताना
निकले है अपनी धुन में दीवाना
शाम सुहानी , बन जाते हैं दिन इंतज़ार के
ओ राही , ओ राही...
:)
हर डर को हौसलों में बदलना है ...
नव वर्ष की शुभकामनाएं !
साथ ही
हार्दिक मंगलकामनाएं …
लोहड़ी एवं मकर संक्रांति के शुभ अवसर पर !
राजेन्द्र स्वर्णकार
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साधुवाद