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Showing posts from 2013

मुस्कुराहट

मैं भागता रहा मैं चीखता रहा सड़कों पर । साथ छूटता रहा मैं ढूंढ्ता रहा मोड़ो पर । दम घुटता रहा मैं चलता रहा शहर के हर कोनों पर। वो नहीं मिली शून्य में लुप्त हुई एक मासूम मुस्कुराहट ।   --   दीप्ति शर्मा

हाँ मैं दलित स्त्री हूँ

मैं तो  बरसों  की भाँती  आज भी यहीं हूँ तुम्हारे साथ पर तुम्हारी सोच नहीं बदली पत्थर तोडते मेरे हाथ पसीने से तर हुई देह और तुम्हारी काम दृष्टि नहीं बदली अब तक ये हाथों की रेखाएँ माथे पर पडी सलवटें बच्चों का पेट नहीं भर सकती मैं जानती हूँ और तुम भी कंकाल बन बिस्तर पर पड जाना मेरा यही चाहते हो तुम तुम कैसे नहीं सुन पाते सिसकियाँ भूखे पेट सोते बच्चों की मेरे भीतर मरती स्त्री की मैं  दलित हूँ हाँ मैं दलित स्त्री हूँ पर लाचार नहीं भर सकती हूँ पेट तुम्हारे  बिना अपना और बच्चों का अब मेरे घर चूल्हा भी जलेगा और रोटी भी पकेगी मेरे बच्चें भूखें नहीं सोयेंगे । तुम्हारे कंगूरे , तुम्हारी वासना तुम्हारी रोटियों , तुम्हारी निगाहों सब को छोड‌ आई हूँ मैं । -- दीप्ति शर्मा

तुम

मैंने तुम्हारे पसन्द की चूल्हे की रोटी बनायी है वही फूली हुयी करारी सी जिसे तुम चाव से खाते हो और ये लो हरी हरी खटाई वाली चटनी ये तुम्हें बहुत पसन्द हैं ना !!! पेट भर खा लेना और ...

याद

मैंने तेज बारिश में एक बड़ी छतरी ओढ़ ली हाँ ये ही नीली छतरी पर वो तेज बारिश, मुसलाधार बारिश मुझे भीगा ही गयी । © दीप्ति शर्मा
उफ़...  देह की टूटन  तपता बदन कसैली जीभ और वो पोटला नीम हकीमों का मुँह बिचकाकर जो खा भी लूँ तो वो हिदायती मिज़ाज़ लोगों का उफ़.. अब इस बुखार में थकी देह की सुनु या खुराक से लडूं या हिदायती लोगों से...  उफ़... © दीप्ति शर्मा

वो

एकांत में एकदम चुप   कँपते ठंडे पड़े हाथों को  आपस की रगड़ से गरम करती  वो शांत है   ना भूख है  ना प्यास है  बस बैठी है  उड़ते पंछीयों को देखती  घास को छूती  तो कभी सहलाती  और कभी उखाड़ती है  जिस पर वो बैठी है   उसी बग़ीचे में  जहाँ के फूलों से प्यार है  पर वो फूल सूख रहें हैं  धीरे धीरे फीके पड़ रहें हैं  उनके साथ बैठकर  जो डर जाता रहा  अकेलेपन का  अब फिर वो हावी हो रहा है  इन फूलों के खतम होने के साथ  ये डर भी बढ़ रहा है  फिर कैसे सँभाल पाएगी  वो इन कँपते हाथों को,  लड़खड़ाते पैरों को   इन ठंडे पड़े हाथों की रगड़ भी   फिर गरमी नहीं दे पाएगी   वो भी मुरझा जायेगी  इन फूलों के साथ ।  © दीप्ति शर्मा

कीमत

बंद ताले की दो चाबियाँ और वो जंग लगा ताला आज भी बरसों की भाँति उसी गेट पर लटका है चाबियाँ टूट रहीं हैं तो कभी मुड़ जा रहीं हैं उसे खोलने के दौरान । अब वो उन ठेक लगे हाथों की मेह...
पुरानी यादों के स्मृतिपात्र भरे रहते हैं भावनाओं से जिन पर कुछ मृत चित्र जीवित प्रतीत होते हैं और दीवार पर टँगी समवेदनाओं को उद्वेलित करते हैं । और एक काल्पनिक कैनवास पर ...

तुम और मैं .

मैं बंदूक थामे सरहद पर खड़ा हूँ और तुम वहाँ दरवाजे की चौखट पर अनन्त को घूँघट से झाँकती । वर्जित है उस कुएँ के पार तुम्हारा जाना और मेरा सरहद के पार उस चबूतरे के नीचे तुम नहीं ...

सिर्फ एक झूठ

आज डायरी के पन्नें पलटते हुये एक पुरानी कविता मिली.... लिजिये ये रही.. अगाध रिश्ता है सच झूठ का सच का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है सिर्फ़ एक झूठ से । अपरम्पार महिमा है झूठ की चे...

मुझे याद करोगे

हर राह हर कदम मेरे इंतज़ार में थाम लोगे ज़ज़्बात हर सहर में अपने तुम मुझे याद करोगे । सूनी रातों में आँखों में जो अश्क लाओगे तो उदास चेहरे में तुम मुझे याद करोगे । हर रात हर प...

गुलाम हूँ मैं पीढ़ियों से..

रोज की तरह आज भी सूरज अस्त हो गया और आँखमिचोली करता उसी पहाड़ी के पीछे छुप गया, वो परछाईं भी तो धुँधली सी पड़ गयी है या शायद मेरी नजर, एक वक्त के बाद पर वो आवाज़ अब भी गूँजती है व...
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एक परिधि में घूमते दो नाम अपनी समान त्रिज्याओं के साथ प्रतीक्षा -रत हैं केन्द्र तक पहुँच खुद के अस्तित्व को एक दूसरे में समाने को । © दीप्ति शर्मा

मच्छर

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एक पुरानी रचना मच्छर वो गुनगुनाना तुम्हारा मेरे कानों के आस पास और मेरा तुम्हें महसूस करना कभी दिन तो कभी साँझ हर पहर तुम्हारी आवाज़ जो गूँजती रहती कानों में जो सोने तक नह...
दीवार पर टँगे कैनवास के रंगों को धूल की परतें हल्का कर देती हैं पर जिंदगी के कैनवास पर चढ़े रंग अनुभव की परतों से दिन प्रति दिन गहरे होते जाते हैं । - deepti sharma

पोटली

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इस समतल पर पॉव रख वो चल दी है आकाश की ओर हवाओं का झूला और घाम का संचय कर शाम के बादलों से निमित्त रास्ते से अपने गूंगेपन के साथ वो टहनियों में बांधकर आंसूओं की पोटली ले जा रही ह...
दो अंगुलियों के बीच वो अनुभूति नहीं पनपती जो तुम्हारे और मेरे बीच अक्सर पनपा करती है । © दीप्ति शर्मा

रचना

 रचना क्या है?? आत्मा से निकले शब्द या कुछ भाव है ये आध्यात्मिकता अन्तरात्मा से निकले भाव की क्या दब सकती है?? या कोई मार सकता है?? मेरी रचना को रचना के भाव को जो कोमल है बहती हुयी एक नदी है जो निरंतर चलती है कभी पुराणों का व्याख्यान और मिथों को दुत्कारती इस रचना को कोई मार सकता है?? मंद हवा सी बहती दिलों को छूती दिगन्तों में बिखर फूलों सी महकती है क्या ये महक कोई चुरा सकता है?? क्या मार सकता है?? मेरी रचना को नहीं ना!! कोई नहीं मार सकता कभी भी ये उज्जवल है औऱ रहेगी । © दीप्ति शर्मा

ख़ामोशी

मांग करने लायक कुछ नहीं बचा मेरे अंदर ना ख्याल , ना ही कोई जज्बात बस ख़ामोशी है हर तरफ अथाह ख़ामोशी वो शांत हैं वहाँ ऊपर आकाश के मौन में फिर भी आंधी, बारिश धूप ,छाँव  में अहसास करता है खुद के होने का उसके होने पर भी नहीं सुन पाती मैं वो मौन ध्वनि आँधी में उड़ते उन पत्तों में भी नहीं बारिस की बूंदों में भी नहीं मुझे नहीं सुनाई देती बस महसूस होता है जैसे मेरी ये ख़ामोशी आकाश के मौन में अब विलीन हो चली है । - दीप्ति शर्मा

आवाज़

आवाज़ जो धरती से आकाश तक सुनी नहीं जाती वो अंतहीन मौन आवाज़ हवा के साथ पत्तियों की सरसराहट में बस महसूस होती है पर्वतों को लांघकर सीमाएं पार कर जाती हैं उस पर चर्चायें की जाती हैं पर रात के सन्नाटे में वो आवाज़ सुनी नहीं जाती दबा दी जाती है सुबह होने पर घायल परिंदे की अंतिम साँस की तरह अंततः दफ़न हो जाती है वो अंतहीन मौन आवाज़ -  दीप्ति शर्मा

रेखाएँ

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हाथ की कुछ रेखाएँ अब गहरी हो गयी हैं ना जाने ये किस बात का अंदेशा है नये जीवन के आगमन का या इस जीवन की मुक्ति का -दीप्ति शर्मा
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एक दरियाफ्त की थी  कभी ईश्वर से दे दो मुट्ठी भर आसमान आज़ादी से उड़ने के लिए और आज उसने ज़िन्दगी का पिंजरा खोल दिया और कहा ले उड़ ले .। - दीप्ति शर्मा

निशान

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किसी एक जगह पर  निशान पड़ गये हैं  मैं तो सीमा पर खड़ी हूँ  और धसते जा रहें हैं पैर  बन्दुक की नोक पर  या सीमा से दलदल पर  ना जाने रेत पर भी पक्के निशान  कैसे पड़ जाते हैं -दीप्ति शर्मा
कहते हैं पुनर्जन्म के फल भोगने पड़ते हैं इस जनम में तो क्या मिल जाता है इस जनम का वो ही प्यार , सोहार्द , अपनापन अगले जनम में भी । - दीप्ति शर्मा 

सरबजीत की याद में

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हिरासत में था कई सालों से यातनाओं से घिरा न्याय की आस लिए मैं जासूस नहीं आम इन्सान था जो गलती कर बैठा ये देश की सीमायें नहीं जानी कभी सब अपना सा लगा पर बर्बरतापूर्ण व्यवहार जो किया वो कब तक सहता आज़ाद हो लौटना था मुझे अपने परिवार के पास पर वो जेहादी ताकतें मुझ पर हावी थीं नफरत का शिकार बना और क्रूरता के इस खेल में मुझे अपनी सच्चाई की कीमत जान देकर चुकानी पड़ी । सुनो मैं अब भी कहता हूँ मैं जासूस नहीं था पर  अपने ही देश ने मुझे बेसहारा छोड़ दिया था उस पडोसी देश की जेल में परिवार से दूर कितनी ही यातनायें सहीं बार बार हमले हुए पर आख़िरकार इस बार मैं हार गया नहीं जीत पाया मैं हार गया ।

उन्मुक्तता

क्यों मिल गयी संतुष्टि उन्मुक्त उड़ान भरने की जो रौंध देते हो पग में उसे रोते , कराहते फिर भी मूर्त बन सहन करना मज़बूरी है क्या कोई सह पाता है रौंदा जाना ??? वो हवा जो गिरा देती है टहनियों से उन पत्तियों को जो बिखर जाती हैं यहाँ वहाँ और तुम्हारे द्वारा रौंधा जाना स्वीकार नहीं उन्हें तकलीफ होती है क्या खुश होता है कोई रौंधे जाने से ?? शायद नहीं बस सहती हैं और वो तल्लीनता तुम्हारी ओह याद नहीं अब  तुम्हें भेदती है अब वो छुअन जो कभी मदमुग्ध करती तुम्हारी ऊब से खुद को निकालती अब प्रतीक्षा - रत हैं वो खुद को पहचाने जाने का टूटकर भी खुशहाल जीवन बिताने का क्या जीने दोगे तुम उन्हें उस छत के नीचे अधिकार से उनके स्वाभिमान से या रौंधते रहोगे हमेशा !!! अपने अहंकार से इस पुरुषवादी समाज में आखिर कब मिल पायेगी उन्हें उन्मुक्तता ??? -  दीप्ति शर्मा

दुविधा

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मेरे कमरे में अब धूप नहीं आती खिड़कियाँ खुली रहती हैं हल्की सी रौशनी है मन्द मन्द सी हवा गुजरती है वहाँ से तोड़ती है खामोशी या शुरू करती है कोई सिलसिला किसी बात के शुरू होने से खतम होने तक का । कुछ पक्षी विचरते हैं आवाज़ करते हैं तोड़ देते हैं अचानक गहरी निद्रा को या आभासी तन्द्रा को । कभी बिखरती है कोई खुशबू फूलों की अच्छी सी लगती है मन को सूकून सा देती है पर फिर भी नहीं निकलता सूनापन वो अकेलापन एक अंधकार जो समाया है कहीं किसी कोने में । ©दीप्ति शर्मा

छोटी पत्तियाँ

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उन छोटी पत्तियों पर  गिर जाती है ओस कोहरा सूखा देता है उन्हें  और पतझड़ गिरा देता है  शायद ये ही उनकी नियति  है ।                                                       - दीप्ति शर्मा
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गुज़र गया जो वक़्त अब  हम उसकी बात नहीं करते  ज़ख्म सीले हैं आँसूओं से अब  हम उनसे मुलाकात नहीं करते  - दीप्ति शर्मा 

पेड़ के हरे पत्ते

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देखा था कल गिरते पेड़ के हरे पत्तों को ना आँधी आयी कोई ना पतझड़ का मौसम था बस तड़पते सहते रोते देखा था मैंने पेड़ के हरे पत्तों को आगे बढ़ना था उनको विश्वास के साथ कुछ पल जीने का साथ ही तो माँगा था पर तोड़ दिया उसने जिससे साथ चल जीने का सहारा माँगा था मुरझाते देखा था मैंने पेड़ के हरे पत्तों को किसी की चाहत के लिये डाल से अलग हो जलते देखा था मैंने पेड़ के हरे पत्तों को ©दीप्ति शर्मा

उजालों की तलाश में हूँ

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ज़फर पथ पर चल रही बिरदैत होने की फ़िराक में हूँ अभी चल रही हूँ अँधेरों पर मैं उजालों की तलाश में हूँ । क़यास लगा रही जीवन का अभी जिन्दगी के इम्तिहान में हूँ ख्वाबों में सच्चाई तलाशती मैं उजालों की तलाश में  हूँ । अल्फाज़ लिखती हूँ कलम से आप तक पहुँचाने के इंतज़ार में हूँ उलझनों को रोकती हुयी मैं उजालों की तलाश में हूँ । परछाइयों को सँभालते हुए गुज़रे वक़्त की निगाह में हूँ उनसे संभाल रही हूँ कदम मैं उजालों की तलाश में हूँ । - दीप्ति शर्मा

ओ मीत

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मेरे गीत तेरी पायलिया है ओ मीत तू मेरी सावरिया है| प्रेम गीत मैं गा रहा हूँ तेरे लिए ही आ रहा हूँ मिलन को बरस रही बादरिया है ओ मीत तू मेरी सावरिया है| मद्धम हवा साथ चली है दिल में दीपक सी उजली है देख   छलक   गयी गागरिया है ओ मीत तू मेरी सावरिया है| अगली पहर तक आ जाऊंगा तुझे दुल्हन बना मैं ले जाऊंगा नजरें उठा जरा तू दुल्हनिया है ओ मीत तू मेरी सावरिया है| © दीप्ति शर्मा  
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लहरों को देखकर डर जाते हो तुम आँखें बंद कर सिहर जाते हो तुम जानते हो डूब जाओगे समन्दर में तो जानकर भी पास क्यों जाते हो तुम । © दीप्ति शर्मा  

सुनसान रस्ते

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डर सा लगता है अकेले चलने में अँधियारे और तन्हा से उन सुनसान रस्तों पर । जहाँ कोई नहीं गुजरता बस एक एहसास है मेरा जो विचरता है ठहरता है और फिर चल पड़ता है उन सुनसान रस्तों पर । ...
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नववर्ष में आओ हाथ मिलाये साथ मिलकर चल पड़े नव उमंग की चाह में हम बढ़ चले हम चल पड़े । सूरज की रौशनी सा प्रेम भाव ले चले कदम से कदम मिला हम बढ़ चले हम चल पड़े । आपस का बैर भूलकर नय...