टकटकी आँखें गड़ाये
मोटा सा चश्मा लगाये
वो हर सुबह बड़े ध्यान से
पढ़ा करते हैं अखबार
हम देखे उनको रोज रोज
पड़ जाते अचरज में बार बार
तो सोचा पूछे या ना पूछे
कि वो क्यों हैं परेशान
अन्तत: पूछ लिया
क्यों चच्चा...
क्या है राज
क्यों पढ़ते इतना ध्यान लगाये
रोज एक ही पन्ने को आप
मुरझाते से चेहरे के साथ
सिर खुजलाते बोले चच्चा
सुनो ओ रे बच्चा
उमर हो गयी 55 साल
और अब तक
नहीं लगी लुगाई हाथ
अखबार बाँचता हूँ हर रोज
शायद मिल जाये अब
तेरी चच्ची का साथ.
© दीप्ति शर्मा —
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कोई तो होगा
नयन
वरालि सी हो चाँदनी लज्जा की व्याकुलता हो तेरे उभरे नयनों में । प्रिय विरह में व्याकुल क्यों जल भर आये? तेरे उभरे नयनों में । संचित कर हर प्रेम भाव प्रिय मिलन की आस है तेरे उभरे नयनों में । गहरी मन की वेदना छुपी बातों की झलक दिखे तेरे उभरे नयनों में । वनिता बन प्रियतम की प्रिय के नयन समा जायें तेरे उभरे नयनों में । © दीप्ति शर्मा
Comments
अच्छा तो मेट्रिमोनियल पढते थे चच्चा...
अनु
आभार !! बेतुकी खुशियाँ
शायद मिल जाए अब तेरी चच्ची का साथ …
हा हा हा
:)
क्या बात है दीप्ति जी
इस बार तो हास्य कविता !
रंग जमा दिया …
:)
शुभकामनाओं सहित…
राजेन्द्र स्वर्णकार
…और , आपकी प्रतीक्षा है मेरे ब्लॉग की ताज़ा पोस्ट पर
#
12-12-12 के अद्भुत् संयोग के अवसर पर
लीजिए आनंद ,
कीजिए आस्वादन
वर्ष 2012 के 12वें महीने की 12वीं तारीख को
12 बज कर 12 मिनट 12 सैकंड पर
शस्वरं पर पोस्ट किए
मेरे लिखे 12 दोहों का
:)