तुम


मैंने तुम्हारे पसन्द की
चूल्हे की रोटी बनायी है
वही फूली हुयी करारी सी
जिसे तुम चाव से खाते हो
और ये लो हरी हरी
खटाई वाली चटनी
ये तुम्हें बहुत पसन्द हैं ना !!!
पेट भर खा लेना
और अपने ये हाथ
यहाँ वहाँ ना पौछना
मैंने अलमारी में
तुम्हारी पसन्द के सफेद
बेरंगे रूमाल रख दिये हैं
ले लेना उन्हें....
सब रंग बिरंगे रूमाल
हटा दिये हैं वहाँ से
वो सारे रंग जो तुम्हें पसन्द नहीं
अब वो दूर दूर तक नहीं हैं
तुम खुश तो हो ना??
सारे घर का रंग भी
सफेद पड़ गया है
एकदम फीका
बेरंगा सा...
मैंने भी तो तुम्हारी पसन्द की
सफेद चुनर ओढ़ ली है
अब तो तुम मुस्कुराओगे ना??
साँझ भी हो चली अब
पंछी भी घरौंदे को लौटने लगे
तुम कहाँ हो??
आ जाओ!!
मैं वहीं आँगन में
नीम के पेड़ के नीचे
उसी खाट पर बैठी हूँ
जो तुमने अपने हाथों से बुनी थी
कह कर गये थे ना तुम
कि अबकि छुट्टीयों में आओगे
वो तो कबकि बीत गयी
तुमने कहा था
मैं सम्भाल कर रखूँ
हर एक चीज तुम्हारी पसन्द की
देखो सब वैसा ही है
तो तुम आते क्यों नहीं
क्यों ये लोग तुम्हारी जगह
ये वर्दी, ये मेडल, रूपये दे रहें हैं
पर मैं तो तुम्हें माँग रही हूँ
क्यों नहीं आते
तुम आ जाओ ना!!!!
© दीप्ति शर्मा

Comments

Kailash Sharma said…
बहुत भावमयी मर्मस्पर्शी रचना..
बि‍छड़ने का दर्द

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