वो कैसी आह की परछाई हैं मैंने खुद को लहरों मे डुबो, तूफानों से ये कश्ती बचायी है | जिस पर अब तक सम्भल मेरी जिंदगी चली आई है | हैं राहें कश्मकस भरी , अजनबी लोगो में रह किस तरह बात समझ पाई है | मुददत से अकेली हूँ मैं , तमन्नाये जीने की मैने तो ये बाजी खुद ही गंवाई है | वो गैरों के भरोसये शौक में आह में डूब ढलती हुई , फिरती वो मेरी ही परछाई है | - दीप्ति शर्मा
Comments
aur mujhe tumhari sahi poemsit9i accchi lagti hai jisse mai shavdo mai 9ahi vata sakta ................tumhari poems mai wo feeli9gs hai jo kisi aur ke mai 8ahi....
आता रहूँगा....
शब्दों में कंजूसी करते हुए भी शानदार रचना है....हम-ग़म का तालमेल अच्छा लगा....शुभकामनाये|
कहने को तो कह सकते थे लेकिन हम खामोश रहे
ख़ामोशी वो क्या समझेंगे जो जलसों के भूखे है
आंसू तो पवित्र है सभी के होंठ झूठे है......
इस पर भी न जाने क्यों लोग हमी से रूठे है
संजय भास्कर जी आपका धन्यवाद मेरा प्रोत्साहन करने को आभार
ehsas जी आपका धन्यवाद मेरा प्रोत्साहन करने को आभार
ashish जी आपका धन्यवाद मेरा प्रोत्साहन करने को आभार
Vijay Pratap Singh Rajput जी आपका धन्यवाद मेरा प्रोत्साहन करने को आभार
Shekhar Suman जी आपका धन्यवाद मेरा प्रोत्साहन करने को आभार
UNBEATABLE जी आपका धन्यवाद मेरा प्रोत्साहन करने को आभार
डॉ. मोनिका शर्मा जी आपका धन्यवाद मेरा प्रोत्साहन करने को आभार
संजय कुमार चौरसिया जी आपका धन्यवाद मेरा प्रोत्साहन करने को आभार
इमरान अंसारी जी आपका धन्यवाद मेरा प्रोत्साहन करने को आभार
amar jeet जी आपका धन्यवाद मेरा प्रोत्साहन करने को आभार
पर लिखती रहें यकीनन बेहतर रचनाएं आपसे निकलेगीं!