अभी कुछ देरपहले मुझे आवाज़ आयी माँ , मैं यहाँ खुश हूँ सब बैखोफ घूमते हैं कोई रोटी के लिये नहीं लड़ता धर्म के लिये नहीं लड़ता देश के लिये, उसकी सीमाओं के लिये नहीं लड़ता देखो ...
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Showing posts from 2014
हे पार्थ !
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हे पार्थ ! मैं सिंहासन पर बैठा अपने धर्म और कर्म से अंधा मनुष्य , मैं धृतराष्ट्र देखता रहा , सुनता रहा और द्रोपती के चीरहरण में सभ्यता , संस्कृति तार तार हुयी धर्म के सारे अध्याय बंद हुए , तब मैं बोला धर्म के विरुद्ध जब मैं अंधा था पर आज आँखें होते हुए भी नहीं देख पाता आज सिंहासन पर बैठा मैं मौन हूँ उस सिंहासन से बोलने के पश्चात हे पार्थ सदियों से आज तक मैं मौन हूँ। दीप्ति शर्मा
सपना
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घुप्प अँधेरा पसरा है बाहर दूर खलियानों से भीतर के कोनों तक । एका एक बारिस और छत से गिरता पानी बिजली की गडगडाहट भी डरा रही है । दियासलाई के डिब्बे में भी सिर्फ एक दियासलाई , उससे भी लालटेन जला दी , वो भी भप भप कर जलती दिख रही है , शायद तेल कम है । तभी पास में रखे उजले डिब्बे की तरफ निगाह गयी जो अपनी रौशनी से जगमगा रहा है उसे हाथ में उठा लिया , जिसमें जुगनू आपस में भिड रहे हैं , जो मैंने एक एक कर जमा किये जैसे कह रहे हों मैं तुझसे ज्यादा चमकता हूँ और इस भिंडत में , और ज्यादा रौशन हो रहे हैं । उन्हें देखते हुए सब भूल दिवार पर सिर टिका बैठ गयी तभी तेज़ आँधी और तुफान आने से मेरे हाथों से , वो जुगनुओं का डिब्बा छुट गया जुगनू छितरा गये बिखर गये इधर उधर मैं हतप्रत बस देखती रही इतना अँधेरा !!!! अब लालटेन भी बुझ चुकी है पेड उखड गये हैं , पौधे टूट गये हैं मेरी छत भी तो उड गयी है उस तूफान में सब बिखर गया । तभी दूर से आती हल्की रौशनी अब और तेज़ होने लगी हर तरफ फैल गयी और मैं मलते देखती हूँ कि सवेरा हो गया वो आँधी , बारिस , अँधेरा सब पीछे छूट गया वो मे...
दमित इच्छा
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इंद्रियों का फैलता जाल भीतर तक चीरता माँस के लटके चिथड़े चोटिल हूँ बताता है मटर की फली की भाँति कोई बात कैद है उस छिलके में जिसे खोल दूँ तो ये इंद्रियाँ घेर लेंगी और भेदती रहेंगी उसे परत दर परत लहुलुहाल होने तक बिसरे खून की छाप के साथ क्या मोक्ष पा जायेगी या परत दर परत उतारेगी अपना वजूद / अस्तित्व या जल जायेगी चूल्हें की राख की तरह वो एक बात जो अब सुलगने लगी है। ----दीप्ति शर्मा