राजपथ पर चलती मैं अकेली
धूप से बचती
छतरी ओढे
चली जा रही हूँ
धूप की तेज़ किरणें
छतरी को पार कर
मुझे जला रही हैं
और मैं
सुकडती चली जा रही हूँ ,
वहीं पास से लोगों का हूजूम निकल रहा है
लोग नारे लगा रहे हैं ,
बलात्कार के दोषियों को फाँसी दो ,
बडे-बडे पोस्टर लटकाये , बडे बेनर उठाये
चले जा रहे हैं ,
उनमें कुछ परेशान हैं
देश की व्यवस्था को लेकर
और कुछ भीड में पीछे चल ,
भीड बढा रहे हैं ,
वो फोन में अश्लील चित्र / फिल्में देख रहे
और मुस्कुरा रहे हैं ,
साथ में नारी हक में नारे लगा रहे है ,
वो आज फिल्में देख मुस्कुरा रहे हैं
कल बलात्कार कर खिलखिलायेगें
अपनी मर्दनगी पर इठलायेगे ,
ये देख
मैं वहीं किनारे सडक पर बैठ गयी
और सोचने लगी
कि कल फिर क्या ये
किसी भीड का हिस्सा बन
नारे लगायेगें
बलात्कारियों को फाँसी दो !
या फिर किसी और हूजूम में
इकट्ठे हों
हिंदुस्तान जिन्दाबाद के नारे लगायेगें ।
© दीप्ति शर्मा

Comments

yashoda Agrawal said…
दीप्ति बहन
शुभ प्रभात
सच ही तो है
आजकल
सही में
कुछ कहा नहीं जा सकता
कि मन में कुछ और है
और तन मांगे कुछ और है
कड़ुआ सच बयां किया
आपने

सादर
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18-09-2014 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1740 में दिया गया है ।
आभार ।
यह नाटकबाज़ी लोगों की आदत बन गई है -वही मानसिकता लिए भीड़ बने रहते हैं लोग!
passionate composition Deepti ji...


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http://raaz-o-niyaaz.blogspot.com/2014/09/blog-post.html
बेहतरीन.... प्रभावी अभिव्यक्ति

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