जब मैं प्रेम लिखूंगी
अपने हाथों से,
सुई में धागा पिरो
कपड़े का एक एक रेशा सिऊगी
तुम्हारे लिये
मजबूती से कपड़े का
एक एक रेशा जोडूंगी
और जब उसे पहनने को बढ़ेगे
तुम्हारे हाथ
तब उस पल
उस अहसास से
मेरा प्रेम अमर हो जायेगा..
ⓒ दीप्ति शर्मा
मेरी परछाई
वो कैसी आह की परछाई हैं मैंने खुद को लहरों मे डुबो, तूफानों से ये कश्ती बचायी है | जिस पर अब तक सम्भल मेरी जिंदगी चली आई है | हैं राहें कश्मकस भरी , अजनबी लोगो में रह किस तरह बात समझ पाई है | मुददत से अकेली हूँ मैं , तमन्नाये जीने की मैने तो ये बाजी खुद ही गंवाई है | वो गैरों के भरोसये शौक में आह में डूब ढलती हुई , फिरती वो मेरी ही परछाई है | - दीप्ति शर्मा
Comments
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (26-07-2014) को ""क़ायम दुआ-सलाम रहे.." (चर्चा मंच-1686) पर भी होगी।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'