जब मैं प्रेम लिखूंगी
अपने हाथों से,
सुई में धागा पिरो
कपड़े का एक एक रेशा सिऊगी
तुम्हारे लिये
मजबूती से कपड़े का
एक एक रेशा जोडूंगी
और जब उसे पहनने को बढ़ेगे
तुम्हारे हाथ
तब उस पल
उस अहसास से
मेरा प्रेम अमर हो जायेगा..
ⓒ दीप्ति शर्मा
डायरी के पन्नें
ये उन दिनों की बात है जब हम मिले पहली दफा स्टेशनपर अनजान से , दूसरी दफा ताजमहल कितनी मन्नतों के बाद ये दिन आया था तुम और ताजमहल पास ही ,सपना लग रहा जैसे ,ताजमहल देखना बचपन की तमन्ना और तुम्हारा मिलना तो लगता हर तमन्ना पूरी हो गयी तुम्हारी बाहों के आगोश में यमुना के पानी में पैर डुबो महसूस करती रही तुम्हें प्यार यहीं है बस ताजमहल की यादें कड़ी नंबर एक #दीप्तिशर्मा
Comments
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (26-07-2014) को ""क़ायम दुआ-सलाम रहे.." (चर्चा मंच-1686) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'