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Showing posts from December, 2012

शब्द

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वो शब्द छोड़ दिये हैं असहाय विचरने को खुले आसमान में वो असहाय हैं, निरुत्तर हैं कुछ कह नहीं पा रहे या कभी सुने नहीं जाते रौंध दिये जाते हैं सरेआम इन खुली सड़को पर संसद भवन के बाहर और न्यायालय में भी सब बहरे हैं शायद या अब मेरे शब्दों में दम नहीं जो निढाल हो जाते हैं और अक्सर बैखोफ हो घुमते कुछ शब्द जो भारी पड़ जाते हैं मेरे शब्दों से... आवाज़ तक दबा देते हैं तो क्यों ना छोड़ दूँ अपने इन शब्दों को खुलेआम इन सड़कों पर विचरने दूँ अंजान लोगों में शायद यूँ ही आ जाये सलीका इन्हें जीने का । © दीप्ति

मैं कद्र करती हूँ

एक ऐसा इंसान जो सच के लिये जीता हो... त्याग, सदभावना में विश्वास हो.. मैं भी एक ऐसे इंसान को जानती हूँ सच में ऐसे लोग बहुत कम होते हैं.. कुछ पंक्तियाँ मेरी तरफ से.. वो आत्मविश्वास जि...
कब तक आबरू अपनी खोयेगी हैवानियत पर फूट फूटकर रोयेगी शरम करो नौजवानों, रहते तुम्हारे कब तक वो नारी काल के गाल में सोयेगी?? © दीप्ति शर्मा
जो गीत हरदम गुनगुनाये अक्सर हम उन्हें समझ ना पाये फिर भी गाते रहे गुनगुनाते रहे चाहे वो गीत अपने हो या पराये © दीप्ति शर्मा
घुटती रही जिंदगी तहख़ानों के बीच अपने ही जहर खिलाते रहे निवालों के बीच यूँ तो कशमकश भरी हैं राहें मेरी रोती भी कैसे रहकर दिलवालों के बीच । © दीप्ति शर्मा
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टकटकी आँखें गड़ाये मोटा सा चश्मा लगाये वो हर सुबह बड़े ध्यान से पढ़ा करते हैं अखबार हम देखे उनको रोज रोज पड़ जाते अचरज में बार बार तो सोचा पूछे या ना पूछे कि वो क्यों हैं परे...
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वो प्रेम की है अनुभूति उसमें आस है विश्वास है जो पनपती है प्रज्वलित हो लौ की तरह. ©दीप्ति शर्मा

जिन्दगी

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जिंदगी की सच्चाई को छुपाते हुए हर हाल में बस मुस्कुराते हुए गुजर जाता है लम्हा कभी कभी । गुजरे इस जीवन में क्या जीवन भी गुजर सकता है? शायद हाँ शायद नहीं भी बिन सच्चाई अपनाये ...