वो रेल वो आसमान और तुम


रेल में खिडकी पर बैठी
मैं आसमान ताक रही हूँ
अलग ही छवियाँ दिख रही हैं हर बार
और उनको समझने की कोशिश
मैं हर बार करती
कुछ जोड़ती, कुछ मिटाती
अनवरत ताक रही हूँ
आसमान के वर्तमान को या
अपने अतीत को
और उन छवियों में
अपनों को तलाशती
मैं तुम्हें देख पा रही हूँ
वहाँ कितने ही पेड़,
बेंच, कुआँ, सड़क, नाला,पहाड़
निकलते चले जा रहे हैं
इन्हें देख लगता है
इस भागती जिदंगी में
कितने साथ छूटते चले गये
मन के कोने में कुछ याद तो है ही
अब चाहे अच्छी हो ,बुरी हो
और मैं उन्हें ढोती ,रास्ते पार करती
तुम्हें खोज रही हूँ
बहुत बरस बाद आज ,
मन के कोने  से निकल दिखे हो
वहाँ बादलों की छवियों में
और मैं तुम्हें निहार रही हूँ।

Comments

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (16-07-2017) को "हिन्दुस्तानियत से जिन्दा है कश्मीरियत" (चर्चा अंक-2668) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Meena sharma said…
प्रेम की सुंदर अनूठी अभिव्यक्ति !
vandana gupta said…
बहुत सुन्दर भाव संजोये हैं
मन में जिसकी छवि घर किए होती है वह कई मोड़ों पर उभरकर सामने आ जाती हैं
बहुत सुन्दर ...
मन में जिसकी छवि घर किए होती है वह कई मोड़ों पर उभरकर सामने आ जाती हैं
बहुत सुन्दर
कोमल भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति।
Lokesh Nashine said…
बहुत सुंदर रचना
Sudha Devrani said…
बहुत सुन्दर....
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति :)
बहुत दिनों बाद आना हुआ ब्लॉग पर प्रणाम स्वीकार करें बहुत दिनो के बाद आपको लिखते देखकर खुशी हुई।

citispecial said…
Bahut achchha likh leti ho yaar
यह असंगति ज़िन्दगी के द्वार सौ -सौ बार रोई ,
बांह में है और कोई चाह में है और कोई।
सांप के आलिंगनों में मौन चन्दन तन पड़े हैं ,
सेज के सपने भरे कुछ फूल मुर्दों पर चढ़े हैं।
दिबेन

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