दुविधा

मेरे कमरे में अब
धूप नहीं आती
खिड़कियाँ खुली रहती हैं
हल्की सी रौशनी है
मन्द मन्द सी हवा
गुजरती है वहाँ से
तोड़ती है खामोशी
या शुरू करती है
कोई सिलसिला
किसी बात के शुरू होने
से खतम होने तक का ।
कुछ पक्षी विचरते हैं
आवाज़ करते हैं
तोड़ देते हैं अचानक
गहरी निद्रा को
या आभासी तन्द्रा को ।
कभी बिखरती है
कोई खुशबू फूलों की
अच्छी सी लगती है
मन को सूकून सा देती है
पर फिर भी
नहीं निकलता
सूनापन वो अकेलापन
एक अंधकार
जो समाया है कहीं
किसी कोने में ।
©दीप्ति शर्मा


Comments

बहुत अच्छा लिखा है आपने
Anonymous said…
मन के अकेलेपन को प्रकृति के साथ बेहतरीन तरीके से जोड़ा है आपने सुन्दर
भावाभिव्यक्ति .
Unknown said…
बहुत खूब |
shivam sharma said…
bahut achha likha h aapne
बहुत सुन्दर कविता | पढ़कर आनंद आया | भावपूर्ण अभिव्यक्ति | आभार |

Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
गहन अभिवयक्ति......
नमस्कार
आप के ब्लॉग पे आना सुखद लगा ! बेहद अच्छी कविता लगी , साधुवाद
सादर
मन का अँधेरा यूँ नहीं हटता...
अच्छी रचना...

अनु
Dinesh pareek said…
बहुत खूब वहा वहा क्या बात है

मेरी नई रचना

खुशबू


प्रेमविरह


आपकी यह पोस्ट आज के (२१ फ़रवरी २०१३) Bulletinofblog पर प्रस्तुत की जा रही है | बधाई
Udan Tashtari said…
भापूर्ण अभिव्यक्ति!!
Unknown said…
अतिसुन्दर दृश्य एवं भावाभिव्यक्ति
Unknown said…
अतिसुन्दर दृश्य एवं भावाभिव्यक्ति
Unknown said…
sarthak prastuti ...man ke andhero ko sooraj ki roshni bhi mita nahi paati ..badhai :-)

mere blog par aapka bhi swagat hai
मेरा लिखा एवं गाया हुआ पहला भजन ..आपकी प्रतिक्रिया चाहती हूँ ब्लॉग पर आपका स्वागत है

Os ki boond: गिरधर से पयोधर...


Madhuresh said…
बहुत ही बेहतरीन अभिव्यक्ति। सुन्दर शब्दों में मन की भावनाएं बहुत अच्छे उकेरे हैं आपने।

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