झरना
क्यूँ दर्द समझ कर भी,
नासमझ बना करते हैं|
वो पत्थर के रोने को
झरना कहा करते हैं
और उसे देख के हँसते हैं |
खलिश दबा सीने में
तन्हा जीया करते हैं ,
तमन्ना नही कोई बस में
जान के हर अश्क का
अफ़सोस किया करते हैं,
वो पत्थर के रोने को
झरना कहा करते हैं
और उसे देख के हँसते हैं|
तस्कीरे बना हर इल्ज्म
को अधिकार दिया करते हैं,
दिल के जख्मो को जो
नकार दिया करते हैं,
इंसानों के आंसू को
देखा भी नही करते हैं,
वो पत्थर के रोने को
झरना कहा करते हैं,
और उसे देख के हँसते हैं |
- दीप्ति शर्मा
Comments
आभार
gungunaate rehne jaisi achhee ... !
समय मिले तो यह भी देखें और तदनुसार मार्गदर्शन/अनुसरण करें. http ;//baramasa98 .blogspot .com
quite new approach.
wonderful.
मार्मिक रचना ,शब्द नहीं हैं कहने के लिए
badhaayee sweekar karein...
सिलसिला जारी रखें ।
आपको पुनः बधाई ।
इस रचना में कहीं-कहीं मैं अपना अतीत खोज रहा था।
कल नेताजी सुभाषचंद बोस की जयन्ती थी
उन्हें याद कर युवा शक्ति को प्रणाम करता हूँ।
आज हम चरित्र-संकट के दौर से गुजर
रहे हैं। कोई ऐसा जीवन्त नायक युवा-पीढ़ी
के सामने नहीं है जिसके चरित्र का वे
अनुकरण कर सकें?
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मुन्नियाँ देश की लक्ष्मीबाई बने,
डांस करके नशीला न बदनाम हों।
मुन्ना भाई करें ’बोस’ का अनुगमन-
देश-हित में प्रभावी ये पैगाम हों॥
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सद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी
वो पत्थर के रोने को
झरना कहा करते हैं...
बहुत उम्दा...
Happy Republic Day.........Jai HIND
बहुत सुन्दर
बहुत सुन्दर