मैं रुक गयी होती



जब मैं चली थी तो
तुने रोका नहीं वरना
मैं रुक गयी होती |
यादें साथ थी और
कुछ बातें याद थी
ख़ुशबू जो आयी होती
तेरे पास आने की तो
मैं रुक गयी होती |
सर पर इल्ज़ाम और
अश्कों का ज़खीरा ले
मुझे जाना तो पड़ा
बेकसूर समझा होता तो
मैं रुक गयी होती |
तेरे गुरुर से पनपी
इल्तज़ा ले गयी
मुझे तुझसे इतना दूर
उस वक़्त जो तुने
नज़रें मिलायी होती तो
मैं रुक गयी होती |
खफा थी मैं तुझसे
या तू ज़ुदा था मुझसे
उन खार भरी राह में
तुने रोका होता तो शायद
मैं रुक गयी होती |
बस हाथ बढाया होता
मुझे अपना बनाया होता
दो घड़ी रुक बातें
जो की होती तुमने तो
ठहर जाते ये कदम और
मैं रुक गयी होती |
_------ "दीप्ति शर्मा "





Comments

Anonymous said…
khubsurat
उन्हे ये जिद थी कि हम बुलाते...
tumne roka nhi... nhi to main ruk gayi hoti............ jaise dil ki baat kah di aapne.............
मन की सारी बैटन को बखूबी लिखा है .. काश ये होता तो रुक गयी होती ...
सुंदर भाव।
रेखा said…
मन के भावों को सुंदरता से अंकित किया है ...बेहतरीन अभिव्यक्ति
Anonymous said…
nice poem
i like it dear
Pradeep said…
दीप्ती जी नमस्ते ..
भावों और शिकायतों को शब्दों में खूब पिरोया है आपने ..
मकर सक्रांति पर्व की अग्रिम शुभकामनाएं .... प्रदीप
Unknown said…
प्यार और वेदना के भाव से संजोई गई बेहद सुन्दर रचना ।
Unknown said…
बेहतरीन कृतियों के लिये बहुत बहुत धन्यवाद व साघुवाद
Anonymous said…
i have visited this site a couple of times now and i have to tell you that i find it quite nice actually. keep it up!

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