चाहा था उन्हें



कसूर इतना था कि  चाहा था उन्हें
दिल में बसाया था उन्हें कि
मुश्किल में साथ निभायेगें
ऐसा साथी माना था उन्हें |
राहों में मेरे साथ चले जो
दुनिया से जुदा जाना था उन्हें 
बिताती हर लम्हा उनके साथ 
यूँ करीब पाना चाहा था उन्हें 
किस तरह इन आँखों ने
दिल कि सुन सदा के लिए 
उस खुदा से माँगा था उन्हें 
इसी तरह मैंने खामोश रह 
अपना बनाना चाहा था उन्हें |
-  दीप्ति शर्मा 

Comments

Anonymous said…
bahut sahi
एक बेहद सुन्दर भावभरी प्रस्तुति।
मन के भावों को अच्छे शब्द दिए हैं .
बहुत ही खुबसूरत ख्यालो से रची रचना......
सुंदर रचना।
बेहतरीन अभिव्‍यक्ति।
रेखा said…
बहुत ही खूबसूरत एहसास ...
Ramesh Saraswat said…
बहुत खूब क्या गहरी छाप छोडती है ये कविता ....सुपर ...लाजवाब ....
दीप्ति जी आप बहुत ऊपर जा रही है....काश हम आपकी सभी कवितायें रीड कर पाते
चाह की राह....अनिश्चित सी..
Ramesh Saraswat said…
Shaam savere teri raah dekhi..............
Ramesh Saraswat said…
लाजवाब कविता अतिसुन्दर लेखन चाहत की एक अजीब से कशमकश भरी अधूरी प्यास लिए अतृप्त को तृप्त करती प्रस्तुति के लिए बधाई की पात्र है दीप्ति शर्मा बहुत खूब लगता है दिल से लिखा है इसलिए बार बार पढता हूँ कविता " चाह था उन्हें " |
Anonymous said…
Greetings... your blog is very interesting and beautifully written.

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