एकांत में एकदम चुप कँपते ठंडे पड़े हाथों को आपस की रगड़ से गरम करती वो शांत है ना भूख है ना प्यास है बस बैठी है उड़ते पंछीयों को देखती घास को छूती तो कभी सहलाती और कभी उखाड़ती है जिस पर वो बैठी है उसी बग़ीचे में जहाँ के फूलों से प्यार है पर वो फूल सूख रहें हैं धीरे धीरे फीके पड़ रहें हैं उनके साथ बैठकर जो डर जाता रहा अकेलेपन का अब फिर वो हावी हो रहा है इन फूलों के खतम होने के साथ ये डर भी बढ़ रहा है फिर कैसे सँभाल पाएगी वो इन कँपते हाथों को, लड़खड़ाते पैरों को इन ठंडे पड़े हाथों की रगड़ भी फिर गरमी नहीं दे पाएगी वो भी मुरझा जायेगी इन फूलों के साथ । © दीप्ति शर्मा