हिमालय

हिमालय की मौन आँखों में
शान्त माहौल के परिवेश में
कुछ प्रश्नों को देखा है मैंने ।

खड़ा तो है अडिग पर
उसके माथे की सलवटों पर  
 थकावट के अंशों को देखा है मैंने ।

प्रताड़ित होता है वो तो क्यों ?
नहीं समझते हो तुम
क्रोधित हो वो कैसे हिला दे
धरती को ये देखा है मैंने ।

जब बहती हुयी पवन कुछ
कहकर पैगाम सुनाती है तो
पैगाम -ए - दर्द को छलकते
धरती पर बहते देखा है मैंने ।

कभी ज्वाला सा जल जाता है
और कभी नदियाँ बन बह जाता है
उसे पिघलते रोते देखा है मैंने ।

भयानक क्रोध में तपते
बादल की तरह फटकर
तबाही फैलाते हुए देखा है मैंने ।

अभिमान करो ना प्रतिकार करो
दर्द से बिलखते पिघलते उस
अटूट ह्रदय को टूटते देखा है मैंने ।

- दीप्ति शर्मा 

Comments

yashoda Agrawal said…
भयानक क्रोध में तपते
बादल की फटकार की तरह
तबाही फैलाते हुए देखा है मैंनें
स्पर्श मे प्रतिकर्ष
सुन्दर रचना
सादर
कल 19/08/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

उतम..उम्दा
प्रकृति के उदात्त सौन्दर्य और उसकी अजानी पीड़ा से निकली एक उत्कृष्ट कविता |बधाई और शुभकामनाएँ |
बहुत ही खूबसूरत कविता दीप्ति जी बधाई |
इसी प्रकार लिखती रहें, अच्छी लेखिका बन जायेंगी। पढ़ें अधिक। इससे शब्दकोष में वृद्धि होती है और लेखनी की समझ पैनी होकर वह प्रखर रचनाओं को जन्म देती है। शुभकामनाओं सहित।
Dayanand Arya said…
kaise hila kar adhaar ko
gira de wo gharaunda
jise usne apni dhamiyon ke rakt se sincha.

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