क्या मैं अकेली थी

सुनसान सी राह
और छाया अँधेरा
गिरे हुए पत्ते
उड़ती हुयी धूल
उस लम्बी राह में
मैं अकेली थी ।

चली जा रही
सब कुछ भूले
ना कोई निशां
ना कोई मंजिल
उस अँधेरी राह में
मैं अकेली थी ।

तभी एक मकां
दिखा रस्ते में
बिन सोचे मैं
वहाँ दाखिल हुयी
उजाला तो था
चिरागों का पर
उन चिरागों में
मैं अकेली थी ।

रुकी वहाँ और
सोचा मैंने है कोई
नहीं यहाँ तो चलूं
आगे के रस्ते में
फिर निकल पड़ी
पर उस रस्ते पर
मैं अकेली थी ।

छोड़ दिया उस
मकां का रस्ता
देखा बाहर जो मैंने
उजाला था राह में
लोग खड़े थे
मेरे इंतजार में

वहाँ ना अँधेरा था
ना ही विराना
बस था साथ
और विश्वास
उन सबके साथ
उस साये में
आकर फिर

मैंने सोचा
क्या सच में
मैं अकेली थी
या ये सिर्फ
एक पहेली थी ।

©.दीप्ति शर्मा

Comments

Anonymous said…
are kya baat hai ...
Anonymous said…
kya baat hai bahut sahi beta
मैंने सोचा
क्या सच में
मैं अकेली थी
या ये सिर्फ
एक पहेली थी ।
.........बहुत खूब!!

बेहतरीन अभिव्यक्ति!!
बहुत सुंदर मन के भाव ...
अकेलेपन को निभा जाना ही पहेली है...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
--
कल शाम से नेट की समस्या से जूझ रहा था। इसलिए कहीं कमेंट करने भी नहीं जा सका। अब नेट चला है तो आपके ब्लॉग पर पहुँचा हूँ!
--
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
गहरे भाव।
बेहतरीन अभिव्‍यक्ति।
babanpandey said…
सुन्दर रचना, कोमल भवनों का स्पर्श ... मेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है
वाह!क्या कविता है! कविता हो तो ऐसी वर्ना न हो.
वाह! बहुत सुन्दर...
बहुत खूब ... यूं तो सभी जीवन में अकेले होते हैं पर फिर भी सभी साथ होते हैं ...

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