पर्वत पिघल रहे हैं
घास,फूल, पत्तीयाँ
बहकर जमा हो गयीं हैं
एक जगह
हाँ रेगिस्तान जम गया है
मेरे पीछे ऊँट काँप रहा है
बहुत से पक्षी आकर दुबक गये हैं
हुआ क्या ये अचानक
सब बदल रहा
प्रसवकाल में स्त्री
दर्द से कराह रही है,
शिशु भी प्रतिक्षारत !
माँ की गोद में आने को
तभी एक बहस शुरू हुई
गतिविधियों को संभालने की,
वार्तालाप के मध्य ही शुरू हुआ
शिशु का पिघलना
पर्वत की भाँति
फिर जम गया वहाँ मंजर
रूक गयी साँसें
माँ विक्षिप्त
मृत शिशु गोद में लिए
विलाप करती
ठंड में पसीना आना
आखिर कौन समझे
फिर फोन भी नहीं लगते
टावर काम नहीं करते
सीडियों से चढ़ नहीं पा रहे
उतरना सीख लिया है
कहा ना सब बदल रहा है
सच इस अदला बदली में
हम छूट रहे हैं
और ये खुदा है कि
नोट गिनने में व्यस्त है।
©दीप्ति शर्मा
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कोई तो होगा
नयन
वरालि सी हो चाँदनी लज्जा की व्याकुलता हो तेरे उभरे नयनों में । प्रिय विरह में व्याकुल क्यों जल भर आये? तेरे उभरे नयनों में । संचित कर हर प्रेम भाव प्रिय मिलन की आस है तेरे उभरे नयनों में । गहरी मन की वेदना छुपी बातों की झलक दिखे तेरे उभरे नयनों में । वनिता बन प्रियतम की प्रिय के नयन समा जायें तेरे उभरे नयनों में । © दीप्ति शर्मा
Comments
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक