शोषित कोख
उस बारिश का रंग दिखा नहीं
पर धरती भींग गयी
बहुत रोई !
डूब गयी फसलें
नयी कली ,
टहनी टूट लटक गयीं
आकाश में बादल नहीं
फिर भी बरसात हुई
रंग दिखा नहीं कोई
पर धरती
कुछ सफेद ,कुछ लाल हुई
लाल ज्यादा दिखायी दी
खून सी लाल
मेरा खून धरती से मिल गया है
और सफेद रंग
गर्भ में ठहर गया है,
शोषण के गर्भ में
उभार आते
मैं धँसती जा रही हूँ
भींगी जमीन में,
और याद आ रही है
माँ की बातें
हर रिश्ता विश्वास का नहीं
जड़ काट देता है
अब सूख गयी है जड़
लाल हुयी धरती के साथ
लाल हुयी हूँ मैं भी।
-- दीप्ति शर्मा
Comments
सो जा चादर तान के, रविकर दिया जवाब; (चर्चामंच 2596)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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,सम्पूर्ण मादा समर्पण से सराबोर ,
पंजो , पावों और हथेलियों में फटी बिवाइयों
की पीड़ा से युक्त , सूखे ओठों को
दांतो से दबाती एक मादा देह।
हर रोज बिछ जाती मेरी शैया पर
बिस्तर की चादर सी , सुबह होने तक
उसी तरह मुझे नाश्ता कराती ,लंच का टिफन सजाती
बच्चों को स्कूल भेजती ,लगी रहती लगातार
जीवन कटजाताऐसे ही झाड़ू पौंछे ,कपडे धोने ,सुखाने और बर्तन मांजने में।
ठन्डे पानी में उसकी बिवाइयां टीसती
और सांस फूलता
हर रोज सुबह से रात होने तक।
दिबेन