दुविधा

मेरे कमरे में अब धूप नहीं आती खिड़कियाँ खुली रहती हैं हल्की सी रौशनी है मन्द मन्द सी हवा गुजरती है वहाँ से तोड़ती है खामोशी या शुरू करती है कोई सिलसिला किसी बात के शुरू होने से खतम होने तक का । कुछ पक्षी विचरते हैं आवाज़ करते हैं तोड़ देते हैं अचानक गहरी निद्रा को या आभासी तन्द्रा को । कभी बिखरती है कोई खुशबू फूलों की अच्छी सी लगती है मन को सूकून सा देती है पर फिर भी नहीं निकलता सूनापन वो अकेलापन एक अंधकार जो समाया है कहीं किसी कोने में । ©दीप्ति शर्मा