फसल


वर्षों पहले बोयी और
आँसूओं से सींची फसल
अब बड़ी हो गयी है
नहीं जानती मैं!!
कैसे काट पाऊँगी उसे
वो तो डटकर खड़ी हो गयी है
आज सबसे बड़ी हो गयी है
कुछ गुरूर है उसको
मुझे झकझोर देने का
मेरे सपनों को तोड़ देने का
अपने अहं से इतरा और
गुनगुना रही वो
अब खड़ी हो गयी है
आज सबसे बड़ी हो गयी है ।
वो पक जायेगी एक दिन
और बालियाँ भी आयेंगी
फिर भी क्या वो मुझे
इसी तरह चिढायेगी
और मुस्कुराकर इठलायेगी
या हालातों से टूट जायेगी
पर जानती हूँ एक ना एक दिन
वो सूख जायेगी
पर खुद ब खुद

© दीप्ति शर्मा


Comments

aap ki kuchh kavitayen padhin. thik hain aur ummid karta hun aane wale samay men behtar hoti jayengi.
बहुत हीं सटीक चित्रण ...जीवन के रिश्ते फसल जैसे हीं होते हैं ...आधार भूल कर स्वछंदता की चाह में भटक जाते हैं ...बहुत सुन्दर ...
....मुझे झकझोर देने का
मेरे सपनों को तोड़ देने का
अपने अहं से इतरा और
गुनगुना रही वो
अब खड़ी हो गयी है ....
sunder hai -- bdhai ho...
दीप्ति जी बहुत बढ़िया भाव हैं... उत्तम कविता.
Unknown said…
Waah ! bahut khoob!

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