इस समतल पर पॉव रख वो चल दी है आकाश की ओर हवाओं का झूला और घाम का संचय कर शाम के बादलों से निमित्त रास्ते से अपने गूंगेपन के साथ वो टहनियों में बांधकर आंसूओं की पोटली ले जा रही ह...
मांग करने लायक कुछ नहीं बचा मेरे अंदर ना ख्याल , ना ही कोई जज्बात बस ख़ामोशी है हर तरफ अथाह ख़ामोशी वो शांत हैं वहाँ ऊपर आकाश के मौन में फिर भी आंधी, बारिश धूप ,छाँव में अहसास करता है खुद के होने का उसके होने पर भी नहीं सुन पाती मैं वो मौन ध्वनि आँधी में उड़ते उन पत्तों में भी नहीं बारिस की बूंदों में भी नहीं मुझे नहीं सुनाई देती बस महसूस होता है जैसे मेरी ये ख़ामोशी आकाश के मौन में अब विलीन हो चली है । - दीप्ति शर्मा