दिल पर तुम यूँ छा रही हो लगता है पास आ रही हो जुल्फ़ों के साये में छुप मुझे देख हाय यूँ इतरा रही हो कातिल मुस्कुराहट से तुम दिल की कली खिला रही हो रुख से अपने बलखा रही हो मुत्तस...
वर्षों पहले बोयी और आँसूओं से सींची फसल अब बड़ी हो गयी है नहीं जानती मैं!! कैसे काट पाऊँगी उसे वो तो डटकर खड़ी हो गयी है आज सबसे बड़ी हो गयी है कुछ गुरूर है उसको मुझे झकझोर देन...
अक्सर सवाल करती हूँ उन टँगी तस्वीरों से क्या वो बोलती हैं?? नहीं ना !! फिर क्यों एक टक यूँ मौन रह देखतीं हैं मुझे कि जैसे जानती हैं हर एक रहस्य जो कैद है मन के अँधेरे खँड़रों में ...