वो कैसी आह की परछाई हैं मैंने खुद को लहरों मे डुबो, तूफानों से ये कश्ती बचायी है | जिस पर अब तक सम्भल मेरी जिंदगी चली आई है | हैं राहें कश्मकस भरी , अजनबी लोगो में रह किस तरह बात समझ पाई है | मुददत से अकेली हूँ मैं , तमन्नाये जीने की मैने तो ये बाजी खुद ही गंवाई है | वो गैरों के भरोसये शौक में आह में डूब ढलती हुई , फिरती वो मेरी ही परछाई है | - दीप्ति शर्मा
दिल में उठे हर इक सवाल की भाषा हूँ | सिमटे हुए अहसासों को जगाने की अभिलाषा हूँ | गहरा है हर जज्बात जज्बातों से पलते खवाब की परिभाषा हूँ | अकेली हूँ जहाँ में पर जगती हुई मैं आशा हूँ | - दीप्ति शर्मा
आज मेरा सफ़र एक सीढ़ी चढ़ गया , बहुत कुछ पाया यहाँ रहकर मैंने , कितना कुछ सीखा तो आज इस अवसर पर बस यही कहना चाहती हूँ - आज ब्लॉग आकाश में असंख्य तारों के बीच चाँद सा प्यार दिया मुझे इस ब्लॉग परिवार ने | ...
Comments
आभार
काफी उम्दा रचना....बधाई...
नयी रचना
"जिंदगी की पतंग"
आभार
हिमकर श्याम
http://himkarshyam.blogspot.in/