वो कैसी आह की परछाई हैं मैंने खुद को लहरों मे डुबो, तूफानों से ये कश्ती बचायी है | जिस पर अब तक सम्भल मेरी जिंदगी चली आई है | हैं राहें कश्मकस भरी , अजनबी लोगो में रह किस तरह बात समझ पाई है | मुददत से अकेली हूँ मैं , तमन्नाये जीने की मैने तो ये बाजी खुद ही गंवाई है | वो गैरों के भरोसये शौक में आह में डूब ढलती हुई , फिरती वो मेरी ही परछाई है | - दीप्ति शर्मा
दिल में उठे हर इक सवाल की भाषा हूँ | सिमटे हुए अहसासों को जगाने की अभिलाषा हूँ | गहरा है हर जज्बात जज्बातों से पलते खवाब की परिभाषा हूँ | अकेली हूँ जहाँ में पर जगती हुई मैं आशा हूँ | - दीप्ति शर्मा
हर इन्सान में ज़ज्बा है सच बोलने का फिर भी वो झूठ से बचा नहीं है | पहना है हर चेहरे ने एक नया चेहरा और जीता है जिन्दगी जब वो बोझ समझ पर , जिन्दगी उसकी सजा नहीं है वो झूठ से बचा नहीं है | खुद को पहचान वो चलता है उन रास्तो पर जहाँ खुद को जानने की उसकी कोई रजा नहीं है वो झूठ से बचा नहीं है| कहता तो है हर बात बड़ी ही सच्चाई से पर नजरें कहती है उसकी कि उसके पास सच बोलने की कोई वजह नहीं है इसलिए ही तो वो झूठ से बचा नहीं है | इसमें उसकी खता नहीं है | - दीप्ति शर्मा
Comments
आभार
काफी उम्दा रचना....बधाई...
नयी रचना
"जिंदगी की पतंग"
आभार
हिमकर श्याम
http://himkarshyam.blogspot.in/