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आजमाइश

आजमाना न था साथी जीवन की आजमाइश में  जिंदगी को तौलता तराजू सूरज बना, तुम कंधे पर बैठ उसके थामनें लगे दुनिया पकड़ने लगे पीलापन मुट्ठी बंद करते ही  अंधेरा हो गया पीलापन छूटा तो आजमाया तुमनें रिश्तों की गहराइयों को अंधेरा हुआ तो कंधा छूट गया परछाई का साथ मिला अब क्या सूरज के कंधे की सवारी  चश्में के लेंस में दिख रही तुम आजमाते रहे जिंदगी नाचती रही उजाला,अंधेरा हुआ आँखों का चश्मा जिंदगी की रौशनी ले डूब गया अंततः । -दीप्ति शर्मा

बस यूँ ही

डूब रहा सूरज वहाँ पीछे ओट लिए, और मैं एकटक देखती रही कि जैसे  तुम छुप गये हो कहीं पीछे, लाल लालिमा में कैद  मुस्कुराते से। #बसयूँही  #दीप्तिशर्मा

डायरी के पन्नें किस्त दूसरी

ताजमहल की यादें कड़ी नं दो ताजमहल के बारे में लोग सुनते हैं फिर सहसा खींचें आते हैं। ताजमहल के शहर की एक लड़की मुँह पर कपड़ा बाँधें, रेलवे स्टेशन पर किसी का इंतजार कर रही है,हर बार गाडियों के हार्न पर वह चौंक नजरें इधर-उधर घुमा रही, किसी का इंतजार था बेसब्र थी, कई गाड़ियां, चेहरे आये गये हुए और उसकी नजरें एकटक जमा थी पटरियों पर कि जैसे अचानक कोई ट्रेन आयेगी और ....... सोचते हुए एक और हार्न बजा, गाड़ी रूकी, गाड़ी रूकने के साथ धड़कनें बढ़ने लगी, वो शक्स दिख गया और आँखें झुक गयी तभी याद आया चेहरा ढँका है सामने वाला पहचानेगा कैसे? हाथ हिलाते हुए उसका नाम लेकर बुलाया और ये मुलाकात स्टेशन पर। सामने बैठे दो शक्स और बात कोई कर नहीं रहा, लड़की बोली ताजमहल चलें? अब इस बार ताजमहल और ऊँट की सवारी, ऊँट का हिलना दोनों का मिलना। दोनों बाहों में बाहें डाल घूमते रहे,मुलाकातें कितना रोमांच दे जाती हैं न खासतौर पर जब आप अनजान हों और एक दूसरे को समझ रहें हो,समझ-बूझकर स्टेशन आकर फिर घर लौट आयी। ताजमहल के शहर की लड़की जिसकी ये मुलाकात भी यादगार रही। ताजमहल के साथ उसके किस्से भी खूबसूरत होते हैं। #दीप्तिशर्मा #डायरीके

यादों का पिटारा

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हमशक्ल होते हैं क्या? मैं नहीं मानती थी पर एक बार हुआ यूँ कि मैंने पाँचवीं के पेपर दिये,कॉलोनी के सारे बच्चे छटवीं में नये स्कूल जा रहे थे, उस समय जीजीआईसी में बहुत से बच्चे गये, मेरा भी मन था पर पापा ने मेरा दाखिला दयानंद विद्या मंदिर पिथौरागढ़ में कराया। मन में उत्साह था, नया स्कूल नये लोग पर जब पहले दिन स्कूल गयी तो सब मुझे सरस्वती बुला रहे थे और कह रहे थे कि मेरे बाल बड़े थे छोटे क्यों कराये? मैं हैरान! परेशान बाल तो मेरे ऐसे ही थे! मैंने बताया मैं सरस्वती नहीं दीप्ति हूँ पर कोई माने ना, कागज दिखाने पड़े, तब पता चला कि मेरी हमशक्ल सरस्वती इसी साल स्कूल छोड़ गयी और मैं आ गयी। उस स्कूल में एक साल पढ़ी पर यादों का पिटारा है। तस्वीर उन्हीं दिनों की है बीच में हरी चुनरी वाली मैं दीप्ति, सरस्वती नहीं 😃 #यादोंकापिटारा  #पिथौरागढ़  अगली किस्त फिर कभी

परवरिश

बच्चों को हम क्या सीखा रहे हैं सिर्फ किताबें रटाने से या उन्हें बोलना सीखाने से काम नहीं चलेगा उन्हें जिम्मेदार बनना होगा सिर्फ रेस में भागना ही जरूरी नहीं है जरूरी ये है भाग क्यों रहें हैं और किस तरह, कहीं जाने अनजाने हम कुछ ऐसा तो नहीं कर रहे जिससे मासूम मन में वो बातें घर कर जायें फिर उन्हीं बातों का आधार बने उसका जीवन ,जीवन बचाना है तो सोचना होगा रंग भेद की बात इन मासूम कोंपल के मन में आ कैसे जाती है ये समझिए हुआ यूँ कि मदर्स डे की पहली रात जब गुन्नू मेरे लिए ड्राइंग बना रहा था तो मेरे पास आकर बोला मम्मा इतना बन गया है अब कलर करना है तो कहने लगा आपको यलो कलर करूँगा और गुन्नू को ब्लैक सुनकर मेरा माथा ठनका ब्लैक क्यों बेटा आप कृष्णा के कलर के हो न सुंदर तो वो तपाक से बोलता है मम्मा मेरा दोस्त मुझे ब्लैक फेयरी बोलता है, गुन्नू को तो समझा दिया पर सवाल ये कि जो बच्चा ऐसा बोल रहा है उसके घर का माहौल कैसा होगा क्या परवरिश मिल रही है उसे ये छोटा सा लगने वाला बहुत बड़ा सवाल है कि ऐसे ही बच्चों के मन में धीरे धीरे कुंठाएँ विकराल रूप ले लेती है ये खुद को सबसे श्रेष्ठ मानने लगते हैं जैसा कि घर

डायरी के पन्नें

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ये उन दिनों की बात है जब हम मिले पहली दफा स्टेशनपर अनजान से , दूसरी दफा ताजमहल कितनी मन्नतों के बाद ये दिन आया था तुम और ताजमहल पास ही ,सपना लग रहा जैसे ,ताजमहल देखना बचपन की तमन्ना और तुम्हारा मिलना तो लगता हर तमन्ना पूरी हो गयी तुम्हारी बाहों के आगोश में यमुना के पानी में पैर डुबो महसूस करती रही तुम्हें  प्यार यहीं है बस  ताजमहल की यादें कड़ी नंबर एक #दीप्तिशर्मा

अतीत

उसने पूछा- "कभी ऐसा हुआ ? तुम चुप रही हो और  फिर भी आ रही हो आवाज विस्मृत हो रहे हों तुम्हारे कान  तुम्हारी आँखें खुद तुम भी कि दिन ,दिन है और रात ,रात है ही" मैंने कहा- "अजीब है न  कौंधती बिजली भी नहीं डराती जब किसी की खामोशी डरा जाती है उन खामोशी की आवाजें मेरे भीतर का रक्त उबाल रही हैं " उसने मुस्कुराते हुए किसी की खामोशी नहीं वहम डराते हैं मैं चुप हूँ रो रही कि हाँ वहम या हकीकत पुरानी उसकी टीस डराती है दिन रात नहीं देखती  ये सच है वो मेरे भीतर डर की आवाजें चीख रहीं हैं सुनो  अरे सुनो तुमने सुना न ! - दीप्ति शर्मा